Quote 3
1
जिसके अंदर अध्यात्म-विद्या है, उसे सारी दुनिया भी नहीं दबा सकती। अध्यात्म-विद्या से जबरदस्त क्रांति की जा सकती है।
2
जहां हम जड़-चेतन विश्व को ब्रह्मदृष्टि से देखते हैं, वहीं सृष्टि मंगलमय बनती है। तब जीवन की छोटी-छोटी चीजें भी छोटी नहीं रह जातीं।
3
हमारी सारी प्रवृत्तियां आत्मदर्शन के लिए हैं।
यह कब होगा, इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। मार्ग पर चलनेवाला चलने की चिंता करता है, मुकाम पर तो पहुंचेगा ही।
4
जब सर्वत्र गुणदर्शन होगा, तभी मानें कि आध्यात्मिक साधना सध गयी।
5
देह स्पष्ट ही अशाश्वत है। तथापि उसे संसार के तुच्छ सुख की प्राप्ति में न लगाकर ईश्वरभक्ति और सत्सेवा में लगाने से, उससे शाश्वत लाभ साधा जा सकता है।
6
वाणी में नम्रता, चित्त में दृढ़ता और बुद्धि में व्यापकता रखकर हम अपना काम करते चले जायें। हम निमित्त बनेंगे, कार्य भगवान की कृपा से होगा।
7
साथियों पर श्रद्धा न रखने का मतलब भगवान पर श्रद्धा का नहीं होना है। भगवान अनेक रूप लेकर हमारे पास पहुंचा है, हम उसके सेवक हैं।
8
प्रार्थना से जीवन-शुद्धि होती है। शुद्धि में स्वयं आनंद वास करता है और उसमें से शक्ति का निर्माण होता है।
9
हम पर सबका हक है, लेकिन हमारा ईश्वर के सिवा किसी पर हक नहीं। यह ध्यान में आ जाये तो मनुष्य निरंतर प्रसन्न रहेगा।
10
नामस्मरण यानी प्रत्येक कार्य का ईश्वर के साथ संबंध !
अपने कर्मों में जो न्यूनता रह जाती है, उसकी पूर्ति नामस्मरण से होती है।
11
हमारा काम स्वचित्त शोधन का है, दूसरे का चित्त जांचने का नहीं।
12
जिसका चित्त अधिक शुद्ध होता है, उसे अपना अल्प दोष भी बड़ा तकलीफ देता है
13
अखंड तत्त्व-संकीर्तन, सतत कर्मयोग, व्रतनिष्ठा, भक्ति और सबकी नम्रतापूर्वक वंदना -यह सब मिलकर ही ब्रह्मविद्या बनती है।
14
सोचो, किंतु 'निज' के संबंध में नहीं। या सबके संबंध में सोच सकते हैं या आत्मा का चिंतन कर सकते हैं। दोनों से 'निज' का विस्मरण होगा। वही तारक है।
15
यह सही है कि चंचल मन बहुत छलता है, लेकिन तू उससे भिन्न है।
तू निश्चल है, तुझे छलने की शक्ति सचमुच उस मन में नहीं है।
लेकिन यह ज्ञान भी भगवत्कृपा से होता है।
16
आत्मज्ञान के सिवा अन्य बातों में तुम्हारा ध्यान कम-से-कम खर्च हो।
17
भगवान मदद करने को हमेशा तैयार है लेकिन तीव्रता से उसकी मदद की याचना करनेवाले ही कहां हैं ?
18
राम को चाहनेवाले आराम की बात क्यों करेंगे ? राम ही तो आराम है।
19
मनुष्य को आत्मा का ज्ञान नहीं रहता, यही उसका भारी अज्ञान है। जो अपने को नहीं जानता, वह दूसरे को क्या जानेगा ?
20
ध्यान का पहला अंश है, अपने आचरण में होनेवाले दोषों का निरीक्षण । दूसरा है, दोष-निरसन का संकल्प और तीसरा है, उसके लिए परमेश्वर के मदद की अपेक्षा।
21
'मेरी मुक्ति' परस्पर विरुद्ध शब्द हैं। 'मैं का हटना' इसी का नाम मुक्ति है। जब तक 'मैं' है, तब तक मुक्ति नहीं।
22
चित्त की समता बाह्य व्यवहार में, चाहे वह लोकसेवा ही क्यों न हो, मशगूल रहने से ही प्राप्त नहीं होती। इसके लिए आंतरिक खोज की जरूरत रहती है।
23
उत्कट भक्ति और आत्मज्ञान के द्वारा कर्मबंधन जरूर कट सकता है।
24
'कोऽहम्' (मैं कौन हूं) के उत्तर पर कर्तव्य का निर्णय निर्भर है।
25
अपना हर काम उपासना-स्वरूप हो, यही ब्रह्मविद्या का आरंभिक विचार है।
26
सूक्ष्म अर्थ में भी राग-द्वेष नहीं चाहिए, तभी परमात्म-दर्शन होता है।
27
उचित संकल्प करनेवाले को ईश्वर का वरदहस्त हमेशा ही प्राप्त होता है।
28
सत्य, संयम एवं सेवा -यह पारमार्थिक जीवन की त्रिसूत्री है।
29
जीवन बिल्कुल सादा बनाओ। शरीर, मन, कपड़े, कमरा सब स्वच्छ । मुख पर हास्य रखो।
सदा परमपिता की याद करते रहो, हम सब उसके बालक हैं, वह खेल कर रहा है।
30
जिसमें आंतरिक समाधान नहीं, वह जीवन ही नहीं।
अंतः-समाधान का अर्थ है, निष्काम सेवा और भक्ति ।
31
वेद-वेदांत-गीतानां विनुना सार उद्धृतः ब्रह्म सत्यं जगत् स्फूर्तिः जीवनं सत्य-शोधनम् । वेद-वेदांत-गीता का विनोबा ने सार ग्रहण किया - ब्रह्म सत्य है, जगत् उसकी स्फूर्ति है और जीवन सत्य के शोध के लिए है।
0 comments:
Post a Comment