A Sage has absolutely no teaching to give you. If you want to have a teaching, you’ll have to go to a spiritual teacher, a yogi, a meditation master. But a Sage never has a teaching to give you whatsoever. The idea is to just be in the presence of the Sage, that does the teaching. A Sage does not teach tantric yoga, kundalini yoga, hatha yoga, raja yoga, laya yoga or anything else. For all teachings are from the mind. Where else would they come from. They are all mental concepts. The Sage is beyond the mind, beyond the mental concepts. So how can a Sage give a teaching? A Sage is absolute reality, pure awareness.
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Robert Adams
7/18/2017
Sage
सुख
तुमने कहा— 'मैं सुखी हूं, तुमने दुख के बीज बो दिये। अब ज्यादा देर न लगेगी, जल्दी ही दुख आ जायेगा, जल्दी ही दुख आ जायेगा। क्योंकि दुख का अर्थ है—वृत्तियों के साथ एक हो जाना। फिर जब दुख आयेगा, तब तुम दुख के साथ एक हो जाओगे। तुम्हारी तकलीफ यह है कि जो भी सामने आता है, तुम उसी के साथ एक हो जाते हो; जो भी दिखाई पड़ता है, उसमें तुम देखनेवाले नहीं रह जाते हो, भोक्ता हो जाते हो। दुख आया तो रोते हो, छाती पीटते हो; सुख आया तो नाचने—कूदने लगते हो। सुख भी बाहर से आता है, दुख भी बाहर से आता है और तुम्हारे भीतर जाने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम ही अपने हाथ से सुख—दुख के साथ जुड़कर सुख—दुख भोग लेते हो। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के पार गया, उसे फिर दिखाई पड़ेगा कि सब मंदिर के बाहर ही हो रहा है, भीतर कुछ आता नहीं।
Osho
शिव--सूत्र -(ओशो) प्रवचन--10
आनंद ज्ञान है
.........♥“आनंद क्या है ?” ..........♥
.................– ओशो........................
॥..........॥..........ॐ..........॥..........॥
मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दुख की है; एक अनुभूति सुख की है; एक अनुभूतिआनंद की है। सुख की और दुख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। बाहर हम कुछ चाहते हैं, मिल जाए, सुख होता है। बाहर हम कुछ चाहते हैं, न मिले, दुख होता है। बाहरप्रिय को निकट रखना चाहते हैं, सुख होता है; प्रिय से विछोह हो, दुख होता है। अप्रिय से मिलना हो जाए, दुख होता है; प्रिय से बिछुड़ना हो जाए, तो दुख होता है। बाहर जो जगत है उसके संबंध में हमें दो तरह की अनुभूतियां होती हैं–या तो दुख की, या सुख की।आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती। भूल करके आनंद को सुख न समझना। आनंद और सुख में अंतर है। सुख दुख काअभाव है; जहां दुख नहीं है वहां सुख है। दुख सुख का अभाव है; जहां सुख नहीं है वहां दुख है।आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है; जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं,वैसी चित्तकी परिपूर्ण शांत स्थिति आनंद की स्थिति है। आनंद का अर्थ है– जहां बाहर से कोई भी आंदोलन हमें प्रभावित नहीं कर रहा–न दुख का और न सुखका।सुख भी एक संवेदना है, दुख भी एक संवेदना है। सुख भी एक पीड़ा है, दुख भी एक पीड़ा है। सुख भी हमें बेचैन करता है, दुख भी हमें बेचैन करता है। दोनों अशांतियां हैं। इसे थोड़ा अनुभव करें, सुख भी अशांति है, दुख भी अशांति है। दुख की अशांति अप्रीतिकर है, सुख की अशांति प्रीतिकर है। लेकिन दोनों उद्विग्नताएं हैं, दोनों चित्त की उद्विग्न, उत्तेजित अवस्थाएं हैं। सुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं। अगर बहुत सुख हो जाए तो मृत्यु तक हो सकती है। अगर आकस्मिक सुख हो जाए तो मृत्यु हो सकती है, इतनी उत्तेजना सुख दे सकता है।दुख भी उत्तेजना है, सुख भी उत्तेजना है। अनुत्तेजनाआनंद है। जहां कोई उत्तेजना नहीं, जहां चेतन पर बाहरका कोई कंपन, प्रभाव नहीं कर रहा, जहां चेतन बाहर से बिल्कुल पृथक और अपने में विराजमान है। उत्तेजना का अर्थ है– अपने से बाहर संबंधित होना, अपने से बाहर विराजमान होना। उत्तेजना का अर्थ है– अपने से बाहर विराजमान होना। जैसे कि झील पर लहरें उठती हैं, लहरें झील में नहीं उठती हैं, लहरें हवाओं में उठती हैं और झील में कंपित होती हैं। हवाओं के प्रभाव में,हवाओं के फर्क में झील पर लहरें उठती हैं। लहरों के उठने का अर्थ है– झील अपने से बाहर किसी चीज से प्रभावित हो रही है। अगर झील अपने से बाहर की किसी चीज से प्रभावित न हो तो क्या हो? तो झील परिपूर्ण शांत होगी, उसमें कोई लहरें नहीं होंगी। हमारा चित्तबाहर से प्रभावित होता है तो लहरें उठती हैं सुख की, और दुख की और जब हमारा चित्त बाहर से अप्रभावित होताहै…नहीं होता। तब जो स्थिति है उस स्थिति का नाम आनंद है। सुख और दुख अनुभूतियां हैं बाहर से आई हुईं,आनंद वह अनुभूति है जब बाहर से कुछ भी नहीं आता।आनंद बाहर का अनुभव न होकर अपना अनुभव है।इसलिए सुख और दुख छीने जा सकते हैं, क्योंकि वे बाहर से प्रभावित हैं, अगर बाहर से हटा लिए जाएंगे तो सुख और दुख बदल जाएंगे। जो आदमी सुखी था, किसी कारण से था;कारण हट जाएगा, दुखी हो जाएगा। जो आदमी दुखी था, किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, सुखी हो जाएगा। आनंद निःकारण है, इसलिए आनंद को छीना नहीं जा सकता। आपका सुख छीना जा सकता है, आपके दुख छीने जा सकते हैं, आपकाआनंद नहीं छीना जा सकता। जो भी बाहर पर निर्भर है वह छीना जा सकता है। इसलिए सुख भी क्षण स्थायी है, दुख भी क्षण स्थायी है, आनंद नित्य है। सुख भी परतंत्रता है, दुख भी परतंत्रता है, क्योंकि दूसरे का उसमें हाथहै। आनदं स्वतंत्रता है। दुख भी बंधन है, सुख भी बंधनहै, आनंद मुक्ति है।तोआनंद मनुष्य का अपने चैतन्य में स्थित होने का नाम है। सुख मिलता है, दुख मिलता है, आनंद मिलता नहींहै। आनंद मौजूद है, केवल जानना होता है। सुख को पाना होता है, दुख को पाना होता है, आनंद को पाना नहीं होता, केवल आविष्कार करना होता है, डिस्कवरी करनी होती है। वह मौजूद है। क्योंकि जो चीज पाई जाएगी वह खो सकती है। इसे स्मरण रखों, जो चीज पाई जा सकती है वह खो भी सकती है। आनंद, मैंने कहा– खो नहीं सकता, इसलिए वह पाया ही नहीं जा सकता। वह मौजूद है, केवल जाना जाता है।तो आनंद के संबंध में दो स्थितियां हैं – आनंद के प्रति अज्ञान और आनंद के प्रति ज्ञान। आनंद की और निरानंद की स्थितियां नहीं हैं, यानी मनुष्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि एक आनंद की स्थिति है और एक निरानंद की। वह दो स्थितियों में होता है– आनंद के प्रति ज्ञान की स्थिति, आनंद के प्रति अज्ञान की स्थिति। आनंद तो मौजूद है।महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को जो आनंद मिला वह आपमें भी मौजूद है। आपमें और उनमें आनंद की दृष्टि से भेद नहीं है, भेद ज्ञान की दृष्टि से है। आनंद की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। महावीर को जो आनंद मिला वह आपमें भी उतना ही मौजूद है, जरा कण भर भी कम नहीं है। फिर भेद कहां है? वे आनंद को देख रहे हैं, आप आनंद को नहीं देख रहे। वे आनंद को जान रहे, आप आनंद को नहीं जान रहे हैं। भेद ज्ञान का है, भेद अवस्था का,स्थिति का, स्टेट ऑफ बीइंग नहीं है, स्टेट ऑफ नोइंग का है। ज्ञान भेद है, स्थिति भेद नहीं है। फिर हमें क्यों उसका बोध नहीं हो रहा है जिसका महावीर को हो रहा है? जो आदमी सुख-दुख का बोध कर रहा है वह आनंद का बोध नहीं कर सकेगा। क्योंकि सुख और दुख बाहर हैं, जो उनमें उलझा है वह बाहर उलझा है, उसके भीतर जाने की उसे फुर्सत नहीं है।सुख-दुख का उलझाव मनुष्य को अपने से बाहर किए है। तोजिसको भीतर जाना हो, उसे सुख-दुख के उलझाव से पीछे सरकना होगा। स्मरणीय है, दुख से तो कोई भी हटना चाहताहै, दुख से कोई भी हटना चाहता है, समस्त प्राणी-जगत हटना चाहता है, लेकिन जो सुख से हटने में लग जाएगा वहआनंद पर पहुंच जाएगा। दुख से तो कोई भी हटना चाहता है। वह साधना नहीं है, वह सामान्य चित्त का भाव है। जो सुख से हटना चाहेगा, वह आनंद में पहुंच जाएगा। दुखसे जो हटना चाहता है उसकी आकांक्षा सुख की है, जो सुखसे हट रहा है उसकी आकांक्षा आनंद की है। साधना का अर्थ है– सुख से हटना। साधना का अर्थ है– सुख-त्याग। त्याग का मतलब– सुख की जो हमारी चिंतना है, सुख को पाने की हमारी जो तीव्र आकांक्षा है, सुख के प्रति जो हम अतिशय उत्सुक हैं, इस उत्सुकता में थोड़ा सा नॉन-कोऑपरेशन, जो मैंने कल कहा।अभी किसी ने पूछा– वह क्या है नॉन-कोऑपरेशन? असहयोग?जब सुख आपको पीड़ित करने लगे, खींचने लगे, तब असहयोग करें इस वृत्त से। और जाने कि ठीक है, सुख की आकांक्षा पैदा हो रही, मैं केवल जानूंगा, इस आकांक्षा से आंदोलित नहीं होऊंगा। सुख की आकांक्षा को जानना और सुख की आकांक्षा से आंदोलित हो जाना, दो अलग-अलग बातें हैं। जाने कि मेरे भीतर सुख की कामना पैदा होती है, लेकिन मैं इससे आंदोलित नहीं होऊंगा। मैं कोशिश करूंगा, कांशस एफर्ट करूंगा, सचेतन, सजग प्रयास करूंगा कि मैं इससे प्रभावित न होऊं, अप्रभावित होने का प्रयत्न करूंगा। इस माध्यम से अगर धीरे-धीरे सुख की आकांक्षा से कोई अप्रभावित होने का विचार करे, सुख से तो मुक्त हो ही जाएगा। जो सुख से मुक्त हुआ, वह दुख से मुक्त हो गया। सुख कीआकांक्षा ही दुख देने का कारण है। जो दुख से मुक्त होना चाहता है वह दुख से कभी मुक्त नहीं होगा, क्योंकि वह सुख की आकांक्षा करता है। जो सुख की आकांक्षा करता है उसके पीछे दुख मौजूद हो जाता है। क्योंकि जिनसे सुख मिलता है वही कारण दुख देने के बनजाते हैं। जो सुख से पीछे हटेगा, सुख से असहयोग करेगा, सुख के प्रति अनासक्ति के भाव की उदभावना करेगा, वह सुख से तो मुक्त होगा, तत्क्षण दुख से भी मुक्त हो जाएगा।दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। दुख से बचने की चेष्टा करने वाले लोग, वे कभी दुख से मुक्त नहीं होतेहैं। सुख से बचने की चेष्टा करने वाले लोग, वे दुख सेभी मुक्त हो जाते हैं, सुख से भी मुक्त हो जाते हैं। तब जो शेष रह जाता है, वह जो दुख और सुख दोनों के छूटने से शेष रह जाता है, वह आनंद है। वह कौन शेष रह जाता होगा? जब दुख भी नहीं है, सुख भी नहीं है, तो फिरकौन शेष रहेगा? जब दुख नहीं, सुख नहीं, तो वह शेष रह जाएगा जो दुख को जानता था और सुख को जानता था। जब दुखभी नहीं है, सुख भी नहीं है, फिर कौन शेष रह जाएगा पीछे? वह शेष रह जाएगा, जो दुख को जानता था, सुख को जानता था। वह ज्ञात, वह ज्ञान, वह ज्ञाता। वह ज्ञान की शक्ति मात्र शेष रह जाएगी। वही ज्ञान की शक्ति आनंद है। भेद आनंद का नहीं, ज्ञान का है। अगर हम सतत आंतरिक की तरफ चलें, बाहर के प्रभावों से निष्प्रभावहोने की तरफ चलें। हमारा बंधन क्या है? बाहर का प्रभाव हमारा बंधन है। हम चौबीस घंटे बाहर से प्रभावित हो रहे हैं। बाहर के प्रभाव इतने इकट्ठे होजाएंगे भीतर, उनकी इतनी पर्तें जम जाएंगी।–
ओशो
Lover At the level of being, you are one.
LOVERS ARE POLAR OPPOSITES....LOVE OH LOVE -------It is one of the great miseries that every lover has to face: there is no way for lovers to drop their strangeness, unfamiliarity, separation. In fact, the whole functioning of love is that lovers should be polar opposites. The farther away they are, the more attractive. Their separation is their attraction. They come close, they come very close, but they never become one.
They come so close that it almost feels like just one step more and they will become one. But that step has never been taken, cannot be taken out of sheer necessity, out of a natural law.
On the contrary, when they are very close, immediately they start becoming separate again, going farther away. Because when they are very close, their attraction is lost; they start fighting, nagging, and being bitchy. These are ways to create the distance again. And as the distance is there, immediately they start feeling attracted. So this goes on like a rhythm: coming closer, going away; coming closer, going away.
There is a longing to be one - but on the level of biology, on the level of the body, becoming one is not possible. Even while making love you are not one; the separation on the physical level is inevitable.
You are saying “Lately, I have begun to realize how even my lover is a stranger to me.” This is good. This is part of a growing understanding. Only childish people think that they know each other. You don’t know even yourself, how can you conceive that you know your lover?
Neither the lover knows himself nor you know yourself. Two unknown beings, two strangers who don’t know anything about themselves are trying to know each other - it is an exercise in futility. It is bound to be a frustration, a failure. And that’s why all lovers are angry at each other. They think perhaps the other is not allowing an entry into his private world: “He is keeping me separate, he is keeping me a little far away.” And both go on thinking in the same way. But it is not true, all complaints are false. It is simply that they don’t understand the law of nature.
On the level of body, you can come close but you cannot become one. Only on the level of the heart, can you become one - but only momentarily, not permanently.
At the level of being, you are one. There is no need to become one; it has only to be discovered.
OSHO--Your Longing is the Seed The Hidden Splendor