3/31/2020

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• अवधूत •
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बाबा मलूकदास एक अवधूत हैं । 
अवधूत का अर्थ है - संन्यास की परम अवस्था जहां न कोई नियम शेष रह जाते हैं - न कोई मर्यादा ; जहां कुछ शुभ है , और न कुछ अशुभ ; जहां व्यक्ति जीता सहज समाधि से ; 
जहां जो हो , वही ठीक है ; जहां स्वीकार संपूर्ण है ; 
जहां कोई निषेध नहीं रहा ; क्या करना , क्या न करना - 
ऐसी धारणाएं , व्यवस्थाएं , नहीं रहीं ; जहां व्यक्ति फिर से 
छोटे बच्चे की भांति हो जाता है ।

अवधूत की दशा  को परम-दशा कहा है ; वह पुनर्जन्म है ; 
वह नया जन्म है ।

एक जन्म मिलता है मां से, फिर उस जन्म के साथ 
आई हुई निर्दोंषता कोमलता , पवित्रता - सब खो जाती है -
समाज की भीड़ में , ऊहापोह में , संसार के जंजाल में । बेईमानी सीखनी पड़ती है , धोखा-घड़ी सीखनी पड़ती है , अविश्वास सीखना पड़ता है ।

तो जिस श्रद्धा को लेकर मनुष्य पैदा होता है , वह धूमिल हो जाती है । फिर उस धूमिल दर्पण में परमात्मा की छबि नहीं बनती । और हजार-हजार विचारों की तरंगें--छबि बिखर-बिखर जाती है । जैसे कभी तरंगें उठी झील में चांद 
का प्रतिबिंब बनता है ; तो बन नहीं पाता ; लहरों में टूट जाता 
है ; बिखर जाता है । पूरी झील पर चांदी फैल जाती है । 
लेकिन चांद कहां है , कैसा है - यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है ।

झील चाहिए शांत , झील चाहिए निर्मल , तो चांद का मुखड़ा दिखाई पड़ता है । ऐसा ही जब चित्त की झील निर्मल होती है , तो परमात्मा का रूप दिखाई पड़ता है ।

परमात्मा को जानने के लिए शास्त्र की जानकारी नहीं । 
शब्द से मुक्ति चाहिए । और परमात्मा को जानने के लिए 
बहुत गणित और तर्क नहीं - निर्दोष मन चाहिए ; 
फिर से एक जन्म चाहिए ।

अवधूत का अर्थ है : जो फिर से जन्मा और जिसने फिर से बालक-जैसी सरलता को उपलब्ध कर लिया ।
सारा योग , सारी भक्ति , सारे ध्यान इतना ही करते हैं कि 
जो गंदगी और जो कचरा समाज तुम पर जमा देते हैं , 
उसे हटा देते हैं । उनका प्रयोग नकारात्मक है ।

योग या भक्ति तुम्हें कुछ देते नहीं , समाज ने जो दे दिया है, उसे छीन लेते हैं । तुम फिर वैसे के वैसे हो जाते हो , 
जैसा तुम्हें होना था ।

तो निश्चित ही अवधूत की परमदशा में न तो कुछ पुण्य बचता है , न कोई पाप बचा है । अवधूत की परमदशा में तो फिर से बालपन लौटा । और यह बालपन गहरा है - पहले बालपन से ज्यादा गहरा है । क्योंकि पहला बालपन अगर बहुत गहरा होता , तो नष्ट न हो सकता था । नष्ट हो गया । संसार के झंझावात न झेल सका । कच्चा था ; अप्रौढ़ था । सरल तो था , 
लेकिन बुनियाद बहुत मजबूत न थी उस सरलता की । 
जरा से हवा के झोंके आये और झील कंप गई । 
जरा मुसीबतें आई और चित्त उद्विग्न हो गया । वृक्ष तो था , लेकिन जड़ें नहीं थी बहुत गहरी , तो जरा-जरा से हवा के झोंके उसे उखाड़ गये ।

दूसरा जो बचपन है , वह ज्यादा गहरा होगा , क्योंकि स्वयं उपलब्ध किया हुआ होगा ; जागरूक होगा । दूसरा जो बचपन है , उसी को हमने इस देश में द्विज कहा है - दूसरा जन्म ।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं ...। और यह बंटवारा बहुत महत्वपूर्ण है । एक तो वे , जो एक ही बार जन्मते हैं ; उनको ही पारिभाषिक अर्थों में शूद्र कहा जाता है - जो एक ही बार जन्में हैं ; जिन्होंने पहले बचपन को ही सब मान लिया और समाप्त हो गये और जिन्होंने दुबारा जन्म लेने की कोई चेष्टा 
न की ।

जो दुबारा जन्म लेता है - द्विज - टवाइस - वही ब्राह्मण है ; 
वही ब्रह्म को पाने का हकदार है ।

तो एक हैं : एक ही बार जन्मे - वंस बार्न ; और दूसरे हैं : 
दुबारा जन्मे - द्विज - टवाइस बार्न ।

अवधूत दुबारा जन्मा है । तो उसके शरीर की उम्र हो भी सकती है काफी हो - बूढ़ा हो , लेकिन उसके चित्त में कोई उम्र नहीं है , कोई समय नहीं है । उसका चित्त समय से मुक्त है । उसका चित्त छोटे बच्चे की भांति है ।

जीसस एक बाजार में खड़े हैं और किसी ने पूछा ...। 
जिसने पूछा , वह धर्मगुरु है ; कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में कौन प्रवेश करेंगे ? कौन न होगे हकदार , कौन होंगे मालिक ?
स्वभावतः उस रब्बी ने सोचा होगा ; जीसस कहेंगे : तुम । क्योंकि वह धर्मगुरु था ; धर्म का ज्ञाता था ; प्रतिष्ठित था । लेकिन जीसस ने उस की तरफ इशारा नहीं किया । 
पास में एक दूसरा आदमी खड़ा था , जिसकी संत की तरह प्रसिद्धि थी कि वह बड़ा पवित्रात्मा है , पुण्यात्मा है । 
उस ने भी गौर से जीसस की तरफ देखा की शायद वे मेरी तरफ इशारा करेंगे , लेकिन नहीं ; जीसस ने उस की तरफ से भी नजर हटा ली । कोई धनी खड़ा था ; कोई प्रतिष्ठित था ; भीड़ में सभी लोग थे , लेकिन जीसस की नजर जा कर रुकी एक छोटे से बच्चे पर । उन्होंने उसे कंधे पर उठा लिया और कहा , जो इस बच्चे की भांति होगे , केवल वे ही ...।

अवधूत का अर्थ है : जो छोटे बच्चे की भांति है । 
तो अवधूत का जो संबंध है परमात्मा से , वह ठीक वैसा ही होगा , जैसा छोटे बच्चे का मां से होता है । परमात्मा उस के लिए कोई बहुत बड़ी और बहुत दूर की बात नहीं है । 
परमात्मा के साथ उसका नाता शिष्टाचार का नहीं है - 
प्रेमाचार का है । और प्रेम कोई सीमा मानता ? 
कि कोई मर्यादा मानता ?

छोटा बच्चा मां से लड़ता भी है ; छोटा बच्चा मां से उलझता 
भी है ; मां से रूठता भी है ; नाराज भी होता है ; उछल-कूद 
भी मचाता है ; मां को मजबूर भी करता है । अगर उसे बाहर जाना है , तो बाहर जाना है । फिर वह सब नियम इत्यादि 
तोड़ कर मां को परेशान करता है ।

छोटे बच्चे का जो संबंध मां से है , वही अवधूत का संबंध अस्तित्व से है । अस्तित्व यानी परमात्मा ।

इन सूत्रों को तभी समझ पाओगे , जब इस संबंध को खयाल 
में ले लो । नहीं तो ये सूत्र थोड़े अजीब मालूम पड़ेंगे । 
थोड़े अशिष्ट भी मालूम पड़ सकते हैं । शिष्टाचार की यहां 
कोई बात नहीं है।

शिष्टाचार - खयाल रखना - औपचारिक है । 
जिससे तुम्हारा शिष्टाचार का संबंध है , उनसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है । शिष्टाचार संबंध थोड़े ही है । 
शिष्टाचार तो , संबंध नहीं है - इस बात को छिपाने का 
उपाय है । 

तो जब तक दो मित्रों के बीच शिष्टाचार चलता है , 
तुम जानना कि मित्रता अभी बनी नहीं । जब दो मित्रों के बीच शिष्टाचार खो जाता है , जब दो मित्र एक दूसरे को प्रेम में गाली 
भी देने लगते हैं , तभी जानना कि मित्रता अब गहरी हुई । 
अब गाली भी मित्रता को उखाड़ न सकेगी ।
जब मित्र शिष्टाचार के सारे नियम तोड़ देते हैं , तो ही जानना कि हार्दिक रूप से करीब आये ।

अगर तुम भगवान के साथ शिष्टाचार का जीवन जी रहे हो , 
तो तुमने भगवान को जाना नहीं , पहचाना नहीं । 
उसके साथ तो नाता प्रेम का ही हो सकता है - 
शिष्टता का नहीं ; सभ्यता का नहीं । उसके साथ तो नाता हार्दिक हो सकता है ।

ये सूत्र हृदय के सूत्र हैं । 
जैसे एक छोटा बच्चा अपनी मां से झगड़ रहा हो , 
ऐसे मलूकदास परमात्मा से झगड़ रहे हैं ।

ओशो
कन थोरे कांकर घने ( संत मलूकदास पर ओशो वाणी )

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THE MUKTA AND THE SIDDHIS, part 1

D. Hitherto I had a great fear of mukti. Till now I regarded it as horrible. Now I see that it is a very agreeable state. Now as regards the powers called Siddhis, are they to be achieved and are they opposed to mukti ? 

M. The highest Siddhi is realization of the Self, atma-sakshathkara; for once you realize the truth you cease to be drawn to the path of ignorance. 

D. Then what are the siddhis? 

M. There are two kinds of siddhis: one kind may well, be a stumbling block to realization. It is said that by mantra, by some drug possessing occult powers, by severe austerities or by samadhi of a certain kind, powers 
can be acquired; but these are no means of Self-knowledge; 
even when you acquire them, you may quite well be in ignorance. 

D. What is the other kind? 

M. They are manifestations of power and knowledge quite natural to you when you realize the Self. 
They are Siddhis, products of the normal and natural tapas of the man who has reached Self-attainment. 
They come of their own accord, they are God-given; they come according to one's own karma so to say. 
But whether they come or not, the siddha of the Real, settled in the supreme peace, is not disturbed. For he knows the Self and that is the unshakable Siddhi. But these siddhis do not come by trying for them. When you are 
in the state of realization, you will know what these 
powers are.

- Sat Darshana Bhashya and Talks with Sri Ramana Maharshi