7/15/2020

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osho 3

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं |

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं |

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं |

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं |

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं |

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |

निदा फ़ाज़ली

(आलम = दशा, हालत)(राहगुज़र = रास्ता, मार्ग, सड़क)
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विवेकानंद तलाश करते थे

–गुरु की तलाश करते थे। और जिसे भी जानना हो उसे गुरु की तलाश ही करनी होगी। उस तलाश में वे बहुत लोगों के पास गये। रवींद्रनाथ के दादा के पास भी गये। उनकी बड़ी ख्याति थी। महर्षि देवेंद्रनाथ! महर्षि की तरह ख्याति थी। वे एक बजरे पर रहते थे। विवेकानंद आधी रात नदी में कूदे, तैरकर बजरे पर पहुंचे; सारा बजरा हिल गया। विवेकानंद चढ़े, जाकर दरवाजे को धक्का दिया। देवेंद्रनाथ रात अपने ध्यान में बैठे थे। इस पागल-से युवक को देखकर बड़े हैरान हुए। कहा: किसलिए आये हो युवक? क्या चाहते हो? यह कोई समय है आने का? विवेकानंद ने कहा कि समय और असमय का सवाल नहीं है। मैं यह जानना चाहता हूं: ईश्वर है?

यह बेवक्त आधी रात का समय, यह कोई पूछने की बात है! ऐसे कोई पूछने आता है! पूछा न ताछा, द्वार ठेलकर अंदर घुस आया युवक, पानी से भीगा हुआ, कपड़े पहने हुए तर-बतर।

एक क्षण देवेंद्रनाथ झिझक गये। उनका झिझकना था कि विवेकानंद वापिस कूद गये। उन्होंने कहा भी कि वापिस कैसे चले? तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तो लेते जाओ। लेकिन विवेकानंद ने कहा: आपकी झिझक ने सब कह दिया। अभी आपको ही पता नहीं।

और यह बात सच थी। देवेंद्रनाथ ने लिखा है कि घाव कर गयी मेरे हृदय में। यह बात सच थी। मुझे भी अभी पता नहीं था, हालांकि मैं उत्तर देने को तत्पर था।

फिर यही विवेकानंद रामकृष्ण के पास गया और रामकृष्ण से भी यही पूछा: ईश्वर है? फर्क देखना, कितना फर्क है महर्षि देवेंद्रनाथ के उत्तर में और रामकृष्ण के उत्तर में। पूछा: ईश्वर है? रामकृष्ण ने एकदम गद्रन पकड़ ली विवेकानंद की और कहा कि जानना है, अभी जानना है, इसी समय जानेगा? यह विवेकानंद सोचकर न आये थे कि कोई ऐसा करेगा! कोई ईश्वर को जनाने के लिए ऐसी गर्दन पकड़ ले एकदम से और कहे कि अभी जानना है? इसी वक्त? तैयारी है?… खुद झिझक गये। कहां झिझका दिया था देवेंद्रनाथ को, अब झिझक गये खुद! और रामकृष्ण कहने लगे: ईश्वर को पूछने चला है, तो सोचकर नहीं आया कि जानना है कि नहीं? और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें, रामकृष्ण तो दीवाने आदमी थे, पागल थे, पैर लगा दिया विवेकानंद की छाती से और विवेकानंद बेहोश हो गये। तीन घंटे बाद जब होश में आये तो जो आदमी बेहोश हुआ था वह तो मिट गया था, दूसरा ही आदमी वापिस आया था। चरण पकड़ लिए रामकृष्ण के और कहा कि मैं तो झिझक रहा था, मैं तो उत्तर न दे सका, लेकिन आपने उत्तर दे दिया।

सदगुरु की तलाश! लेकिन पंडित सदगुरुओं के जैसे ही वचन बोलते हैं, उससे सावधान रहना। खोटे सिक्के बाजार में बहुत हैं। और खयाल रखना, खोटे सिक्कों की एक खूबी होती है, तुम अर्थशास्त्रियों से पूछ सकते हो। अर्थशास्त्री कहते हैं, खोटे सिक्के की एक खूबी होती है कि अगर तुम्हारी जेब में खोटा सिक्का पड़ा हो और असली सिक्का पड़ा हो तो पहले तुम खोटे को चलाते हो। खोटे सिक्के की खूबी होती है कि वह चलने को आतुर होता है। अकसर ऐसा होगा। तुम्हारी जेब में अगर दस का एक नकली नोट पड़ा है और एक असली, तो तुम पहले नकली चलाओगे न! जब तक नकली चल जाये, अच्छा। और जिसके पास भी नकली पहुंचेगा, वह भी पहले नकली ही चलायेगा। तो नकली सिक्के चलन में हो जाते हैं, असली सिक्के रुक जाते हैं। नकली सिक्के चलने के लिए आतुर होते हैं।

इस जगत में पंडित, मौलवी, पुरोहित खूब चलते हैं। सस्ते भी होते हैं, सुविधापूर्ण भी होते हैं, सांप्रदायिक भी होते हैं, भीड़ के अंग होते हैं, परंपरा के समर्थक होते हैं, रूढ़ि-अंधविश्वासों के हिमायती होते हैं, तुम्हारी जिंदगी में कोई क्रांति लाने की झंझट भी खड़ी नहीं करते, सिर्फ सांत्वना देते हैं; घाव हो तो एक फूल रख देते हैं घाव पर कि फूल दिखाई पड़े, घाव दिखायी पड़ना बंद हो जाये। इलाज तो नहीं करते। इलाज तो कैसे करेंगे? इलाज तो अपने घावों का भी अभी नहीं किया है।
ओशो

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existence of seer  is the only immortal.

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“प्रेम दगाबाज़ है ! ” – ओशो

तुम एक प्रेम में पड़ गए। तुमने एक स्त्री को चाहा, एक पुरुष को चाहा, खूब चाहा। जब भी तुम किसी को चाहते हो, तुम चाहते हो तुम्हारी चाह शाश्वत हो जाए। जिसे तुमने प्रेम किया वह प्रेम शाश्वत हो जाए। यह हो नहीं सकता। यह वस्तुओं का स्वभाव नहीं। तुम भटकोगे। तुम रोओगे। तुम तड़पोगे। तुमने अपने विषाद के बीज बो लिए। तुमने अपनी आकांक्षा में ही अपने जीवन में जहर डाल लिया।

यह टिकने वाला नहीं है। कुछ भी नहीं टिकता यहां। यहां सब बह जाता है। आया और गया। अब तुमने यह जो आकांक्षा की है कि शाश्वत हो जाए, सदा—सदा के लिए हो जाए; यह प्रेम जो हुआ, कभी न टूटे, अटूट हो; यह श्रृंखला बनी ही रहे, यह धार कभी क्षीण न हो, यह सरिता बहती ही रहे—बस, अब तुम अड़चन में पड़े। आकांक्षा शाश्वत की और प्रेम क्षणभंगुर का; अब बेचैनी होगी, अब संताप होगा। या तो प्रेम मर जाएगा या प्रेमी मरेगा। कुछ न कुछ होगा। कुछ न कुछ विध्‍न पड़ेगा। कुछ न कुछ बाधा आएगी।

ऐसा ही समझो, हवा का एक झोंका आया और तुमने कहा, सदा आता रहे। तुम्हारी आकांक्षा से तो हवा के झोंके नहीं चलते। वसंत में फूल खिले तो तुमने कहा सदा खिलते रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो फूल नहीं खिलते। आकाश में तारे थे, तुमने कहा दिन में भी रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो तारे नहीं संचालित होते। जब दिन में तारे न पाओगे, दुखी हो जाओगे। जब पतझड़ में पत्ते गिरने लगेंगे, और फूलों का कहीं पता न रहेगा, और वृक्ष नग्न खड़े होंगे दिगंबर, तब तुम रोओगे, तब तुम पछताओगे। तब तुम कहोगे, कुछ धोखा दिया, किसी ने धोखा दिया।

किसी ने धोखा नहीं दिया है। जिस दिन तुम्हारा और तुम्हारी प्रेयसी के बीच प्रेम चुक जाएगा, उस दिन तुम यह मत सोचना कि प्रेयसी ने धोखा दिया है; यह मत सोचना कि प्रेमी दगाबाज निकला। नहीं, प्रेम दगाबाज है। न तो प्रेयसी दगाबाज है, न प्रेमी दगाबाज है—प्रेम दगाबाज है।

जिसे तुमने प्रेम जाना था वह क्षणभंगुर था, पानी का बबूला था। अभी—अभी बड़ा होता दिखता था। पानी के बबूले पर पड़ती सूरज की किरणें इंद्रधनुष का जाल बुनती थीं। कैसा रंगीन था! कैसा सतरंगा था! कैसे काव्य की स्फुरणा हो रही थी! और अभी गया। गया तो सब गए इंद्रधनुष! गया तो सब गए सुतरंग। गया तो गया सब काव्य! कुछ भी न बचा।

क्षणभंगुर से हमारा जो संबंध हम बना लेते हैं और शाश्वत की आकांक्षा करने लगते हैं उससे दुख पैदा होता है। शाश्वत जरूर कुछ है; नहीं है, ऐसा नहीं। शाश्वत है। तुम्हारा होना शाश्वत है। अस्तित्व शाश्वत है। आकांक्षा कोई भी शाश्वत नहीं है। दृश्य कोई भी शाश्वत नहीं है। लेकिन द्रष्टा शाश्वत है।

– ओशो
[अष्‍टावक्र महागीता]

जीवन साधना के तीन सुत्र

|| जीवन साधना के  तीन सुत्र || 

 पहला सूत्र है - वर्तमान में जीना। 

 लिविंग इन दि प्रेजेंट। अतीत और भविष्य के चिंतन की यांत्रिक धारा में इन दिनों न बहे। उसके कारण वर्तमान का जीवित क्षण, लिविंग मोमेंट व्यर्थ ही निकल जाता है जब कि केवल वही वास्तविक है। न अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की। एक स्मृति में है, एक कल्पना में। वास्तविक और जीवित क्षण केवल वर्तमान है। सत्य को यदि जाना जा सकता है तो केवल वर्तमान में होकर ही जाना जा सकता है। साधना के इन दिनों में स्मरणपूर्वक अतीत और भविष्य से अपने को मुक्त रखें। समझें कि वे हैं ही नहीं। जो क्षण पास है-जिसमें आप हैं, बस वही है। उसमें और उसे परिपूर्णता से जी लेना है।

दूसरा सूत्र है - सहजता से जीना। 

मनुष्य का सारा व्यवहार कृत्रिम और औपचारिक है। एक मिथ्या आवरण हम अपने पर सदा ओढ़े रहते हैं। और इस आवरण के कारण हमें अपनी वास्तविकता धीरे- धीरे विस्मृत ही हो जाती है। इस झूठी खाल को निकाल कर अलग रख देना है। नाटक करने नहीं, स्वयं को जानने और देखने हम यहां एकत्रित हुए हैं। नाटक के बाद नाटक के पात्र जैसे अपनी नाटकीय वेशभूषा को उतार कर रख देते हैं, ऐसे ही आप भी इन दिनों में अपने मिथ्या चेहरों को उतार कर रख दें। वह जो आप में मौलिक है और सहज है- उसे प्रकट होने दें और उसमें जीएं। सरल और सहज जीवन में ही साधना विकसित होती है।

तीसरा सूत्र है - अकेले जीना।

 साधना का जीवन अत्यंत अकेलेपन में, एकाकीपन में जन्म पाता है। पर मनुष्य साधारणत: कभी भी अकेला नहीं होता है। वह सदा दूसरों से घिरा रहता है और बाहर भीड़ में न हो तो भीतर भीड़ में होता है। इस भीड़ को विसर्जित कर देना है। भीतर भीड़ को इकट्ठी न होने दें और बाहर भी ऐसे जीएं कि जैसे इस शिविर में आप अकेले ही हैं। किसी दूसरे से कोई संबंध नहीं रखना है।

संबंधों में हम उसे भूल गए हैं जो कि हम स्वयं हैं। आप किसी के मित्र हैं या कि शत्रु हैं, पिता हैं या कि पुत्र हैं, पति हैं या कि पत्नी है-ये संबंध आपको इतने घेरे हुए हैं कि आप स्वयं को अपनी निजता में नहीं जान पाते हैं। क्या आपने कभी कल्पना की है कि आप अपने संबंध से भिन्न कौन हैं?  क्या आपने अपने आप को अपने संबंधों के वस्त्रों से भिन्न करके भी कभी देखा है? सब संबंधों, रिलेशनशिप्स से अपने को ऋण कर लें। समझें कि आप अपने मां-बाप के पुत्र नहीं हैं, अपनी पत्नी के पति नहीं हैं, अपने बच्चों के पिता नहीं हैं, मित्रों के मित्र नहीं हैं, शत्रुओं के शत्रु नहीं हैं और तब जो शेष बच रहता है, जानें कि वही आपका वास्तविक होना है। वह शेष सत्ता ही अपने आप में आप, यू-इन योरसेल्फ हैं। उसमें ही हमें इन दिनों जीना है l

ओशो,
साधना पथ