क्या होगा मुझे --
दस हजार लोग प्रभावित हों कि दस करोड़ लोग प्रभावित हों ।
इससे क्या होगा ?
उनको प्रभावित करके मैं क्या पा लूंगा ।
अज्ञानियों की भीड़ को प्रभावित करने की इतनी उत्सुकता
अज्ञान की खबर देती है ।
राजनेता दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होता है --
समझ में आता है ; लेकिन धार्मिक व्यक्ति क्यों दूसरों को
प्रभावित करने में उत्सुक होगा !
जब भी तुम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हो ,
तब एक बात याद रखना कि तुम आत्मस्थ नहीं हो ।
दूसरे को प्रभावित करने का अर्थ है की तुम अहंकार-स्थित हो ।
अहंकार दूसरे के प्रभाव को भोजन की तरह उपलब्ध करता है ;
उसी पर वह जीता है ।
जितनी आंखें मुझे पहचान लें , उतना मेरा अहंकार बडा़ होता है ।
अगर सारी दुनिया मुझे पहचान ले ,
मेरा अहंकार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है ।
कोई मुझे न पहचाने --- गांव से निकलूं , सड़क से गुजरूं ,
कोई देखे न , कोई रेकगनीशन नहीं , कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं ;
किसी की आंख में झलक न आये ,
लगे ऐसा जैसा कि मैं हूं ही नहीं -- बस , वहां अहंकार को चोट है ।
अहंकार चाहता है कि दूसरे ध्यान दें ।
यह बडे़ मजे की बात है --- अहंकार ध्यान नहीं करना चाहता ;
दूसरे उस पर ध्यान करें .... ,
सारी दुनिया उसकी तरफ देखे , वह केंद्र हो जाए ।
धार्मिक व्यक्ति , दूसरा मेरी तरफ देखे , इसकी फिक्र नहीं करता ;
मैं अपनी तरफ देखूं --- क्योंकि अंततः वही मेरे साथ जाएगा ।
यह तो बच्चों की बात हुई ।
बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें ।
सर्टीफिकेट घर लेकर आते हैं तो नाचते-कूदते हैं ।
लेकिन बुढा़पे में भी तुम सर्टीफिकेट मांग रहे हो --
तब तुमने जिंदगी गंवा दी !
सिद्धि की आकांक्षा दूसरे को प्रभावित करने में है ।
धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नहीं है ।
वही तो सांसारिक का स्वभाव है ।
यह सूत्र कहता है कि मोह-आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां
तो फलित हो जाती हैं , लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता ।
वह कितनी ही बडी़ सिद्धियों को पा ले -- उसके छूने से मुर्दा जिंदा
हो जाए , उसके स्पर्श से बीमारियां खो जाएं , वह पानी को
छू दे और औषधि हो जाए -- लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई
भी संबंध नहीं है । सच तो स्थिति उल्टी है कि जितना ही वह
व्यक्ति सिद्धियों से भरता जाता है , उतना ही आत्मज्ञान से दूर
होता जाता है ; क्योंकि जैसे-जैसे अहंकार भरता है ,
वैसे-वैसे आत्मा खाली होती है और जैसे-जैसे अहंकार खाली
होता है , वैसे-वैसे आत्मा भरती है ,
तुम दोनों को साथ-ही-साथ न भर पाओगे ।
दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो ,
अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जायेगा । तब तुम योग भी साधोगे तो
वह राजनीति होगी , धर्म नहीं ।
और राजनीति एक जाल है । फिर येन-केन-प्रकारेण आदमी दूसरे
को प्रभावित करना चाहता है ।
फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित करना चाहता है ।
लेकिन प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो ,
क्योंकि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो ।
मैंने सुना है , चुनाव हो रहे थे और एक संध्या तीन आदमी हवालात
में बंद किये गये । अंधेरा था --- तीनों ने अंधेरे में एक-दूसरे को
परिचय दिया । पहले व्यक्ति ने कहा , ' मैं हूं सरदार संतसिंह ।
मैं सरदार सिरफोड़सिंह के लिए काम कर रहा था । '
दूसरे ने कहा , ' गजब हो गया ! मैं हूं सरदार शैतानसिंह ।
मैं सरदार सिरफोड़सिंह के विरोध में काम कर रहा था । '
तीसरे आदमी ने कहा , ' वाहे गुरुजी की फतह !
वाहे गुरुजी का खालसा ! हद हो गयी !
मैं खुद हूं सरदार सिरफोड़सिंह । '
नेता , अनुयायी , पक्ष के , विपक्ष के -- सभी कारागृहों के योग्य हैं ।
वही उनकी ठीक जगह है , जहां उन्हें होना चाहिए ;
क्योंकि , पाप की शुरुआत वहां से होती है ,
जहां मैं दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करना चाहता हूं ।
क्योंकि अहंकार न शुभ जानता है , न अशुभ ;
अहंकार सिर्फ अपने को भरना जानता है । कैसे अपने को भरता
है , यह बात गौण है । अहंकार की एक ही आकांक्षा है कि
मैं अपने को भरूं और परिपुष्ट हो जाऊं ।
और , चूंकि अहंकार एक सूनापन है , सब उपाय करके भी भर
नहीं पाता , खाली ही रह जाता है ।
जैसे-जैसे उम्र हाथ से खोती है , वैसे-वैसे अहंकार पागल होने
लगता है ; क्योंकि अभी तक भर नहीं पाया ,
अभी तक यात्रा अधूरी है और समय बीता जा रहा है ।
इसलिए बूढे़ आदमी चिड़चिडे़ हो जाते हैं ।
वह चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है ;
वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है ।
जो भरना चाहते थे , वे भर नहीं पाये ।
और बूढे़ आदमी की चिड़चिड़ाहट और घनी हो जाती है ;
क्योंकि उसे लगता है कि जैसे-जैसे वह बूढ़ा हुआ है ,
वैसे-वैसे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है ;
बल्कि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब समाप्त हो जाए ।
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था ।
मैंने उससे पूछा कि ' क्या तुम कुछ कारण बता सकते हो ,
नसरुद्दीन । परमात्मा ने तुम्हें इतनी लंबी उम्र क्यों दी ? '
तो उसने बिना कुछ झिझककर कहा ,
' संबंधियों के धैर्य की परीक्षा के लिए । '
सभी बूढ़े संबंधियों के धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं ।
वे चौबीस घंटे देख रहे हैं कि ध्यान उनकी तरफ से हटता जा
रहा है । मौत तो उन्हें बाद में मिटायेगी ,
लोगों की पीठ उन्हें पहले ही मिटा देती है ।
उससे चिड़चिड़ापन पैदा होता है ।
सब की पीठ हो गयी , जिनके चेहरे थे ।
जो अपने थे , वे पराये हो गये । जो मित्र थे , वे शत्रु हो गये ।
जिन्होंने सहारे दिये थे , उन्होंने सहारे छीन लिये ।
सब ध्यान हट गया ।
यह आदमी तो वही है जो कल था ; पद पर था -- वही आदमी अभी
भी है । सिर्फ अहंकार के शिखर पर था , अब खाई में है ;
आत्मा तो जहां-की-तहां है । काश ! इस आदमी को उसकी याद
आ जाए , जिसका न कोई शिखर होता , न कोई खाई होती ;
न कोई हार होती ; न जीत होती ; जिसको लोग देखें तो ठीक ,
न देखें तो ठीक ; जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता ; जो एकरस है ।
उस एकरसता का अनुभव तुम्हें तभी होगा ,
जब तुम लोगों का ध्यान मांगना बंद कर दोगे ।
भिखमंगापन बंद करो । सिद्धियों से क्या होगा ?
लोग तुम्हें चमत्कारी कहेंगे ।
लाखों की भीड़ इकट्ठी होगी ; लेकिन लाखों मूढो़ं को इकट्ठा करके क्या सिद्ध होता है कि तुम इन लाखों मूढो़ं के ध्यान के केन्द्र हो !
तुम महामूढ़ हो !
अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा ?
जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका , उसकी प्रशंसा मांगकर तुम
क्या करोगे ? जो खुद भटक रहा है , उसके तुम नेता हो जाओगे ?
उसके सम्मान का कितना मूल्य है ?
!! ओशो !!
शिव-सूत्र
पांचवा प्रवचन
संसार के सम्मोहन और सत्य का आलोक
दिनांक 15 सितंबर , 1974
प्रातःकाल , ओशो आश्रम , पूना
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::