7/19/2017

Relax

Just sit there right now
Don’t do a thing
Just rest.

For your separation from God,
From love,

Is the hardest work
In this
World.

Let me bring you trays of food
And something
That you like to
Drink.

You can use my soft words
As a cushion
For your
Head.

~ Hafiz

Universal Awakening

Awakening life

When we are prevented from doing the things we so much like to do, we feel frustrated and may brood over these denials. But though we do not see it then, there is a very good reason.

When our dear ones are taken from us; when we are obliged to give up our homes for just one room; when there are so many calls on our time and thought that we have to lay aside our gifts -for painting, music or writing - there are very good reasons.

When some rough awakening shocks us out of our comfort and security, out of our tranquil days - and we have begun to re-make our own little world, there is good reason.

Most of us pass our lives away eating the husks of life. Within them, beneath the rind, is a sweeter fruit than ever we have tasted. How shall we find it unless the rind is peeled away by Wisdom greater than our own, by a Love whose ways are strange and bewildering to us, but knows very well what it is about.

Until the outer fails us, we may never have to seek for That which not only abides through all change, all disappointment, all sorrow, but takes us safely through these deep waters and teaches us as It does so.

Disappointments point to our attachments with unerring accuracy and they are also closely linked to our intimate sense of self-esteem which is why they are so hard to acknowledge and accept.

- Therese of Lisieux

दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक अहंकार है

क्या होगा मुझे --
दस हजार लोग प्रभावित हों कि दस करोड़ लोग प्रभावित हों ।
इससे क्या होगा ?
उनको प्रभावित करके मैं क्या पा लूंगा ।
अज्ञानियों की भीड़ को प्रभावित करने की इतनी उत्सुकता
अज्ञान की खबर देती है ।
राजनेता दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होता है --
समझ में आता है ; लेकिन धार्मिक व्यक्ति क्यों दूसरों को
प्रभावित करने में उत्सुक होगा !

जब भी तुम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हो ,
तब एक बात याद रखना कि तुम आत्मस्थ नहीं हो ।
दूसरे को प्रभावित करने का अर्थ है की तुम अहंकार-स्थित हो ।
अहंकार दूसरे के प्रभाव को भोजन की तरह उपलब्ध करता है ;
उसी पर वह जीता है ।
जितनी आंखें मुझे पहचान लें , उतना मेरा अहंकार बडा़ होता है ।
अगर सारी दुनिया मुझे पहचान ले ,
मेरा अहंकार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है ।
कोई मुझे न पहचाने --- गांव से निकलूं , सड़क से गुजरूं ,
कोई देखे न , कोई रेकगनीशन नहीं , कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं ;
किसी की आंख में झलक न आये ,
लगे ऐसा जैसा कि मैं हूं ही नहीं -- बस , वहां अहंकार को चोट है ।

अहंकार चाहता है कि दूसरे ध्यान दें ।
यह बडे़ मजे की बात है --- अहंकार ध्यान नहीं करना चाहता ;
दूसरे उस पर ध्यान करें .... ,
सारी दुनिया उसकी तरफ देखे , वह केंद्र हो जाए ।

धार्मिक व्यक्ति , दूसरा मेरी तरफ देखे , इसकी फिक्र नहीं करता ;
मैं अपनी तरफ देखूं --- क्योंकि अंततः वही मेरे साथ जाएगा ।
यह तो बच्चों की बात हुई ।
बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें ।
सर्टीफिकेट घर लेकर आते हैं तो नाचते-कूदते हैं ।
लेकिन बुढा़पे में भी तुम सर्टीफिकेट मांग रहे हो --
तब तुमने जिंदगी गंवा दी !

सिद्धि की आकांक्षा दूसरे को प्रभावित करने में है ।
धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नहीं है ।
वही तो सांसारिक का स्वभाव है ।

यह सूत्र कहता है कि मोह-आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां
तो फलित हो जाती हैं , लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता ।
वह कितनी ही बडी़ सिद्धियों को पा ले -- उसके छूने से मुर्दा जिंदा
हो जाए , उसके स्पर्श से बीमारियां खो जाएं , वह पानी को
छू दे और औषधि हो जाए -- लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई
भी संबंध नहीं है । सच तो स्थिति उल्टी है कि जितना ही वह
व्यक्ति सिद्धियों से भरता जाता है , उतना ही आत्मज्ञान से दूर
होता जाता है ; क्योंकि जैसे-जैसे अहंकार भरता है ,
वैसे-वैसे आत्मा खाली होती है और जैसे-जैसे अहंकार खाली
होता है , वैसे-वैसे आत्मा भरती है ,
तुम दोनों को साथ-ही-साथ न भर पाओगे ।

दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो ,
अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जायेगा । तब तुम योग भी साधोगे तो
वह राजनीति होगी , धर्म नहीं ।
और राजनीति एक जाल है । फिर येन-केन-प्रकारेण आदमी दूसरे
को प्रभावित करना चाहता है ।
फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित करना चाहता है ।
लेकिन प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो ,
क्योंकि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो ।

मैंने सुना है , चुनाव हो रहे थे और एक संध्या तीन आदमी हवालात
में बंद किये गये । अंधेरा था --- तीनों ने अंधेरे में एक-दूसरे को
परिचय दिया । पहले व्यक्ति ने कहा , ' मैं हूं सरदार संतसिंह ।
मैं सरदार सिरफोड़सिंह के लिए काम कर रहा था । '
दूसरे ने कहा , ' गजब हो गया ! मैं हूं सरदार शैतानसिंह ।
मैं सरदार सिरफोड़सिंह के विरोध में काम कर रहा था । '
तीसरे आदमी ने कहा , ' वाहे गुरुजी की फतह !
वाहे गुरुजी का खालसा ! हद हो गयी !
मैं खुद हूं सरदार सिरफोड़सिंह । '

नेता , अनुयायी , पक्ष के , विपक्ष के -- सभी कारागृहों के योग्य हैं ।
वही उनकी ठीक जगह है , जहां उन्हें होना चाहिए ;
क्योंकि , पाप की शुरुआत वहां से होती है ,
जहां मैं दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करना चाहता हूं ।

क्योंकि अहंकार न शुभ जानता है , न अशुभ ;
अहंकार सिर्फ अपने को भरना जानता है । कैसे अपने को भरता
है , यह बात गौण है । अहंकार की एक ही आकांक्षा है कि
मैं अपने को भरूं और परिपुष्ट हो जाऊं ।
और , चूंकि अहंकार एक सूनापन है , सब उपाय करके भी भर
नहीं पाता , खाली ही रह जाता है ।
जैसे-जैसे उम्र हाथ से खोती है , वैसे-वैसे अहंकार पागल होने
लगता है ; क्योंकि अभी तक भर नहीं पाया ,
अभी तक यात्रा अधूरी है और समय बीता जा रहा है ।
इसलिए बूढे़ आदमी चिड़चिडे़ हो जाते हैं ।
वह चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है ;
वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है ।
जो भरना चाहते थे , वे भर नहीं पाये ।
और बूढे़ आदमी की चिड़चिड़ाहट और घनी हो जाती है ;
क्योंकि उसे लगता है कि जैसे-जैसे वह बूढ़ा हुआ है ,
वैसे-वैसे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है ;
बल्कि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब समाप्त हो जाए ।

मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था ।
मैंने उससे पूछा कि ' क्या तुम कुछ कारण बता सकते हो ,
नसरुद्दीन । परमात्मा ने तुम्हें इतनी लंबी उम्र क्यों दी ? '
तो उसने बिना कुछ झिझककर कहा ,
' संबंधियों के धैर्य की परीक्षा के लिए । '

सभी बूढ़े संबंधियों के धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं ।
वे चौबीस घंटे देख रहे हैं कि ध्यान उनकी तरफ से हटता जा
रहा है । मौत तो उन्हें बाद में मिटायेगी ,
लोगों की पीठ उन्हें पहले ही मिटा देती है ।
उससे चिड़चिड़ापन पैदा होता है ।
सब की पीठ हो गयी , जिनके चेहरे थे ।
जो अपने थे , वे पराये हो गये । जो मित्र थे , वे शत्रु हो गये ।
जिन्होंने सहारे दिये थे , उन्होंने सहारे छीन लिये ।
सब ध्यान हट गया ।

यह आदमी तो वही है जो कल था ; पद पर था -- वही आदमी अभी
भी है । सिर्फ अहंकार के शिखर पर था , अब खाई में है ;
आत्मा तो जहां-की-तहां है । काश ! इस आदमी को उसकी याद
आ जाए , जिसका न कोई शिखर होता , न कोई खाई होती ;
न कोई हार होती ; न जीत होती ; जिसको लोग देखें तो ठीक ,
न देखें तो ठीक ; जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता ; जो एकरस है ।

उस एकरसता का अनुभव तुम्हें तभी होगा ,
जब तुम लोगों का ध्यान मांगना बंद कर दोगे ।

भिखमंगापन बंद करो । सिद्धियों से क्या होगा ?
लोग तुम्हें चमत्कारी कहेंगे ।
लाखों की भीड़ इकट्ठी होगी ; लेकिन लाखों मूढो़ं को इकट्ठा करके क्या सिद्ध होता है कि तुम इन लाखों मूढो़ं के ध्यान के केन्द्र हो !
तुम महामूढ़ हो !

अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा ?
जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका , उसकी प्रशंसा मांगकर तुम
क्या करोगे ? जो खुद भटक रहा है , उसके तुम नेता हो जाओगे ?
उसके सम्मान का कितना मूल्य है ?

!! ओशो !!

शिव-सूत्र
पांचवा प्रवचन
संसार के सम्मोहन और सत्य का आलोक
दिनांक 15 सितंबर , 1974
प्रातःकाल , ओशो आश्रम , पूना

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