11/15/2017

Self

apuryamanam acala-pratistham samudram apah pravisanti yadvat
tadvat kama yam pravisanti sarve sa santim apnoti na kama-kami

As the rivers and lakes enters into the ocean, which
although full, remains undisturbed, in the same way, when all desires flows into a steady minded person, the desires becomes fused in him, does not affect him and does not make him feel avarice. He achieves peace in contrary to the one who strives to satisfy desires.

~ Srimad Bhagavad Gita, Ch2:Sh70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

भावार्थ : जैसे अनेक नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सभी कामनाएं स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं| ऐसा स्थित प्रज्ञ [मनुष्य] परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥

प्रिय भक्तो, इसी संसार में सब रहते हैं, ज्ञानी भी अज्ञानी भी| भौतिक जगत की अच्छी और बुरी चीजों से सबका सामना होता है| लेकिन एक जगह हम देखते हैं थोड़ी सी कामनाएं एक मनुष्य को भटका देती है वहीँ अनगिनत इक्षाएं भी एक स्थिर प्रज्ञ मनुष्य को डिगा नही पाते| यह मनुष्य के आतंरिक शक्ति और योग में उसकी कुशलता पर निर्भर करता है कि कौन से मनुष्य दुर्गुणों से प्रभावित होता है या नही | जैसे एक छोटी से नदी में थोडा भी ज्यादा पानी आ जाए तो नदी उफनने लगता है लेकिन एक सागर हलाकि जल से परिपूर्ण होता है फिर भी लगातार पानी का प्रवाह भी उसकी गंभीरता को भंग नही कर पाता| सागर सदा शांत बना रहता है|

Both enlightened and unenlightened people live in same world. Obviously all good or bad of the material world is available to both types of people. The desires which unsettle the mind of a normal human, the same does not make any impact on the person of steady mind. Like a small river starts overflowing with even a little extra water enter it, a ocean though is already full of water is never get disturb with continuous flow of water in it. This is one of the secret of to be known.

~ Ch2:Sh70

via Srimad Bhagavad Gita

“Shri Hari Om Tat Sat”

Self

A Light on the Teaching of Bhagavan Sri Ramana Maharshi - The Essence of Spiritual Practice (Sadhanai Saram)
by Sri Sadhu Om

12. Which Do You Like?

23. Having limited and transformed oneself into a body, and having transformed the knowledge gathered through the five senses of that body into the world, one sees that world, which is nothing other than one’s own real Self, as objects which are other than oneself, and one is thereby deluded with likes and dislikes for those objects. Such confusion alone is what is called the world-illusion (jagat-maya).

24. The non-dual state in which you do not see yourself as the body and as the any objects of the world, and in which you clearly know that that which exists is only you, who are one, this alone is the state of God. Whichever you like is possible (that is, by your own unlimited perfect freedom (or paripurna-brahma-swatantra), it is possible for you to remain in whichever one of these two states you like – either in the state of delusion (maya), in which you are deluded by seeing yourself as many, or in the state of God, in which you realize yourself to be the one non-dual reality).

Self

Only reality exists and you are that.
Only consciousness exists and you are that.
Only love exists and you are that.

~Robert Adams - T.39 - Sitting in the Silence - 27th January, 1991

Osho

प्रेमपूर्ण चित्त की अवस्था मे सर्वत्र परमात्मा ही दिखाई पड़ता है, प्रेम परमात्मा की ही अनुभूति है, प्रेमपूर्ण चित्त ही परमात्मा की अनुभूति कर सकता है। जिससे भी प्रेम होगा, उसी मे परमात्मा की छवि दिखाई पड़ेगी। प्रेम पात्र परमात्मा ही दिखाई पड़ेगा। यदि ऐसा नही है, तो फिर प्रेम है ही नही, प्रेम की भ्रांति है।

विरह

विरह क्या है?

      भक्ति के मार्ग पर विरह आधी यात्रा है, और मिलन शेष आधी। दो ही कदम हैं भक्ति कें—विरह और मिलन। पहले विरह, फिर मिलन। जो विरही है, वही मिलेगा। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं परमात्मा कहां है, कहा छिपा है। विरह का अर्थ है कि मुझे मेरे जीवन का अर्थ नहीं मिलता। विरह का अर्थ है, आंसू और आंसू मेरी आत्मा पर फैले हैं, मैं रो रहा हूं? मैं पुकार रहा हूं; राह नहीं सूझती, अंधेरा है, मैं टटोल रहा हूं; मैं भटक रहा हूं; मैं गिर रहा हूं; मैं उठ रहा हूं। विरह प्यास है। विरह अभीप्सा है। कुछ है जो प्रकट नहीं हो रहा है, और जो प्रकट हो जाए तो जीवन का अर्थ मिल जाए, जीवन में संगति आ जाए। संगीत आ जाए। कुछ है जो अनुभव में आता है भीतर कि पास ही है, फिर भी चूक—चूक जाता है। कुछ है जिसकी अचेतन में ध्वनि सुनाई पड़ती है, लेकिन चेतन तक नहीं आ पाती।
      विरह का अर्थ है, परमात्मा है और मुझे नहीं मिल पा रहा है। तो मैं रोऊं, तो मैं पुकारूं, तो मैं गिरूं उसके अतात चरणों में, तो मैं उस अज्ञात के लिए दीए जलाऊ, आरती सजाऊं, फूलमालाएं गूथूं; मैं खाली हूं और मेहमान आ नहीं रहा है—मेहमान है निश्चित, इसकी प्रतीति होनी शुरू होती है भक्त को कि परमात्मा है निश्चित, हर तरफ उसकी छाया सरकती मालूम पड़ती है, फूलों मे उसका रूप दिखाई पड़ता है, पक्षियों में उसकी उड़ान मालूम होती है, झरनों में उसका कलकल नाद मालूम होता है, अस्पष्ट सी अनुभूति होती है, पगध्वनि सुनाई पड़ती है कभी—कभी किन्हीं क्षणों में और किसी—किसी झरोखे से वह झांक जाता है, किसी सपने में उसकी छाया पड़ती है, प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है—दूर की—एहसास होने लगता है कि है तो जरूर, लेकिन कब छाती से छाती मिले, कब आलिंगन हो!
      विरह का अर्थ है, ऐसी चित्त की दशा जिसे एहसास तो होना शुरू हुआ, लेकिन एहसास अभी अनुभूति नहीं बना है। जिसे परमात्मा की प्रतीति अनुभव में तो आने लगी, लेकिन आमना—सामना नहीं हुआ, दरस—परस नहीं हुआ है। ध्वनि सुनी है कहीं से, लेकिन कहा से आती है, स्रोत नहीं मिल रहा है। ध्वनि सुनकर ही भक्त मस्त हो गया है। जैसे मदारी ने अपनी तुरही बजाई हो और सांप अपनी पोल में छिपा हुआ तड़फने लगे, ऐसा विरह है। सरकने लगे ध्वनि के स्रोत की तरफ, मस्त होने लगे, मदमस्त होने लगे।
      इस विरह को शांडिल्य ने कहा—बड़ा उपयोगी है। जब दो विरही मिल जाते हैं, रोते हैं और एक—दूसरे को रुलाते हैं और प्रभु की महिमा बखान करते हैं, प्रभु की उपस्थिति की चर्चा करते है, प्रभु की झलकें एक—दूसरे से आदान—प्रदान करते हैं, तब सत्संग होता है। उसी सत्संग में धीरे— धीरे अनुभव निखरते हैं, साफ होते हैं। सोना विरह की अग्नि से गुजर—गुजरकर खालिस कुंदन बनता है। और एक दफा मजा आने लगता है आसुओ का—क्योकि ये आंसू परमात्मा के लिए हैं, ये दुख के आंसू नहीं हैं, ये बड़े अहोभाव के आंसू है; इतना भी क्या कम है कि हमें उसका एहसास होने लगा, हम धन्यभागी हैं कि हमें उसका एहसास होने लगा, अभागे है बहुत जिन्हें यह पता ही नहीं है कि परमात्मा जैसी कोई बात होती है, जिन्होंने कभी इस शब्द पर दो क्षण विचार नहीं किया है, जिन्हें प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं मालूम।
आओ फिर नज्म कहें
      फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आखें
      फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
      या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर इक बार
      नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
      फिर कोई नज्म कहें
      आओ फिर कोई नज्म कहें
      जब दो विरही मिलते हैं—और विरहियो का मिलन सत्संग है। जब दो प्रेमी मिल जाते हैं, या चार प्रेमी मिल बैठते हैं, तो करते क्या हैं? रोते हैं और रुलाते हैं। रोमाचित होते हैं, एक दूसरे की भावदशा को पीते हैं, एक दूसरे की भावदशा से आदोलित होते हैं, एक—दूसरे से संक्रामित होते हैं।
      आओ फिर नज्म कहें
      फिर किसी दर्द को सहला के सुजा ले आखें
      फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
      या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर इक बार
      नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
      फिर कोई नज्म कहें
      इन घड़ियों में परमात्मा और थोड़े करीब आ जाता है। जितने तुम्हारे आंसू गहन होते हैं, उतना परमात्मा करीब आ जाता है—आंसू भरी आखें ही उसे देखने में समर्थ हो पाती हैं। आंसू से भरी आखें पात्र हो जाती हैं। लबालब। आंसू से भरी आखें तुम्हारी प्रार्थना से भरी आखें हैं, झलक उसकी गहराने लगती है। जितनी झलक गहराती है, उतनी तडूफ भी गहराने लगती है।
      मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके
      पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन
      पुकारती रही सुहाग—दीप की किरन—किरन
      निशा—दिशा, मिलन विरह विदग्ध टेरते रहे
      कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन—शिकन
      असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे
      मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके
      आता परमात्मा बहुत बार और चला जाता। आया हवा के झोंके सें—यह आया और यह गया! और पीछे बड़ा विदग्ध भाव छोड़ जाता। विरह घना होने लगता है। विरह एक ऐसी घड़ी में आ जाता है, जब विरह भक्त की मृत्यु बन जाता है, जब भक्त अपने को बिलकुल ही गंवा देता है, जब विरही और विरह दो नहीं रह जाते, जब विरही और विरह एक ही हो जाते हैं, जब भक्त का रोआ—रोआ रोता है, श्वास—श्वास रोती है, धड़कन— धड़कन रोती है, उसी घड़ी क्रांति घटती है, उसी घड़ी विरह की रात्रि पूरी हुई, मिलन की सुबह आई।
      विरह को सग़ैभाग्य समझना। विरह द्वार पर दस्तक दे, टालना मत। विरह पुकारे, उसके पीछे जाना। विरह बहुत सताएगा, क्योंकि सताए बिना निखार नहीं है। विरह बहुत जलाएगा, क्योंकि बिना जलाए कोई परिशुद्धि नहीं है। विरह को मित्र मानना, तो एक दिन विरह तुम्हें इस योग्य बना देगा कि मिलन घट सके।
      विरह तुम्हारे हाथ में है, मिलन तुम्हारे हाथ में नहीं। इसलिए विरह को जितना प्रगाढ़ कर सको उतना प्रगाढ़ करो। रोओ, रोमांचित होओ, नाचो, पुकारों। यही पुकार यही रुदन, यही
रुदन, यही नृत्य, यही तुम्हारे हृदय से उठती हुई कराह तुम्हें धीरे—धीरे परमात्मा की तरफ खींचती ले जाएगी। यही तुम्हें ठीक दिशा देगी, और इसी दिशा से एक दिन परमात्मा चला आता है। जिस दिन तुम्हारा विरह सचमुच परिपूर्ण हो जाता है, उस दिन तुम परमात्मा को पाने के हकदार हो गए, उस दिन तुम पात्र बने।
      संन्यास के लिए पात्रता की जरूरत नहीं है, परमात्मा के लिए पात्रता की जरूरत आएगी। लेकिन वह पात्रता भी ध्यान रखना, तुम्हारे उपवास की पात्रता नहीं है, और न तुम्हारे त्याग की पात्रता है, क्योंकि उससे तो अहंकार भरता है।
      वह पात्रता तुम्हारे आसुओ की पात्रता है, क्योंकि आसुओ से ही तुम गलते हो, पिघलते हो; आसुओ में ही एक दिन धीरे—धीरे गल—गलकर अहंकार समाप्त हो जाता है।
      जहां अहंकार की समाप्ति है, वहीं परमात्मा से मिलन है।
अथातो भक्ति जिज्ञासा , ओशो