12/24/2016

शिव-पार्वती संवाद

शिव-पार्वती संवाद :-
***************
पार्वती पूछ रही हैं शिव से
शांत कैसे हो जाऊँ?
आनंद को कैसे उपलब्ध हो जाऊँ?
अमृत कैसे मिलेगा?
शिव उत्तर देते हैं कि
बाहर जाती श्वांस...........अंदर जाती श्वांस
दोनो के बीच ठहर जा
अम़ृत को उपलब्ध हो जाएगी।
पार्वती कहती हैं कि समझ मे नहीं आया
कुछ और कहें…
शिव कहते हैं कि
जन्म और मृत्यु
यह रहा जन्म ...........और यह रही मृत्यु
दोनो के बीच ठहर जा।
पार्वती कहती हैं कुछ समझ नहीं आया
कुछ और कहें
फिर शिव कहते हैं
दो विरोधों के बीच ठहर जा
आसक्ति .............और विरक्तिि
ठहर जा दो विपरीत के बीच
जो दो विपरीत के बीच ठहर जाता है वह
स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है
आप अपने सूत्र स्वयं खोज सकते हो
एक ही नियम है
दो विपरीत के बीच ठहर जाओ
तटस्थ हो जाओ
सम्मान .............और अपमान के बीच ठहर जाओ
मुक्ति को प्राप्त हो जाओगे
दुख और............. सुख के बीच मे रुक जाओ
प्रभु मे प्रवेश होगा
मित्र और ...............शत्रु के बीच मे ठहर जाओ
सच्चिदानंद मे गति होगी
कहीं से भी दो विपरीत खोज लेना
और दोनो के बीच तटस्थ हो जाना
न इस तरफ झुकना
न उस तरफ
समस्त तंत्र का सार यही है
जो दो के बीच ठहर जाता है
जो दोनो के बाहर है
उसको उपलब्ध हो जाता है।
द्वैत मे जो तटस्थ हो जाता है
वह अद्वैत को उपलब्ध हो जाता है
द्वैत मे ठहरी हुई चेतना
अद्वैत को उपलब्ध हो जाती है
और द्वैत मे भटकी हुई चेतना
अद्वैत मे च्युत हो जाती है।
एक अदभुत ग्रंथ है भारत में। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अदभुत ग्रंथ पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव। छोटी-सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनिया में खोजनी मुश्किल है। कुल एक सौ बारह सूत्र हैं। हर सूत्र में एक ही बात है। हर सूत्र में एक ही बात! पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वही एक सौ बारह बार दोहराई गई है–एक ही बात! और हर दो सूत्र में एक विधि पूरी हो जाती है।
पार्वती पूछ रही है शंकर से, शांत कैसे हो जाऊं? आनंद को कैसे उपलब्ध हो जाऊं? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तियों में शंकर उत्तर देते हैं। दो पंक्तियों में वे कहते हैं, बाहर जाती है श्वास, भीतर आती है श्वास। दोनों के बीच में ठहर जा; अमृत को उपलब्ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वास, भीतर आती है श्वास; दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।
पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। और शंकर दो-दो सूत्र में कहते चले जाते हैं। हर बार पार्वती कहती है, नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तियां। और हर पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वास, अंदर जाती श्वास। जन्म और मृत्यु; यह रहा जन्म, यह रही मौत; दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहें।
एक सौ बारह बार! पर एक ही बात, दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रीतिकर-अप्रीतिकर, ठहर जा–अमृत की उपलब्धि। पक्ष-विपक्ष, ठहर जा–अमृत की उपलब्धि। आसक्ति-विरक्ति, ठहर जा–अमृत की उपलब्धि। दो के बीच, दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए, वह गोल्डन मीन, स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है।
यह तीसरा सूत्र भी वही है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थ हो जाना। सम्मान-अपमान, ठहर जाओ–मुक्ति। दुख-सुख, रुक जाओ–प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु, ठहर जाओ–सच्चिदानंद में गति।
कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना और दो के बीच में तटस्थ हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्त योग का सार इतना ही है, दो के बीच में जो ठहर जाता, वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत से च्युत हो जाती है। बस, इतना ही।
लेकिन मजबूरी है–चाहे शिव की हो, और चाहे कृष्ण की हो, या किसी और की हो–वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती है। फिर-फिर कहनी पड़ती है। कहनी पड़ती है इसलिए, इस आशा में कि शायद इस मार्ग से खयाल में न आया हो, किसी और मार्ग से खयाल आ जाए।
ओशो
🌹🌹🙏🌹🌹

vedas

स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति,
न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति,
न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति,
न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति,
न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति,
न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति,
न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति,
न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति,
न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति,
न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति,
आत्मा वा अरे द्रष्टवः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदग्ं सर्वं विदितम्॥५
He said:
It is not for the sake of the husband, my dear, that he is loved, but for one s own sake (For the sake of one s own self.) that he is loved.
It is not for the sake of the wife, my dear, that she is loved, but for one s own sake that she is loved.
It is not for the sake of the sons, my dear, that they are loved,
but for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of wealth, my dear, that it is loved, but
for one s own sake that it is loved.
It is not for the sake of the Brahmana, my dear, that he is loved, but for one s own sake that he is loved.
It is not for the sake of the Ksatriya, my dear, that he is loved,
but for one s own sake that he is loved.
It is not for the sake of worlds, my dear, that they are loved, but
for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of the gods, my dear, that they are loved, but for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of beings, my dear, that they are loved, but for one s own sake that they are loved.
It is not for the sake of all, my dear, that all is loved, but
for one s own sake that it is loved.
The Self, my dear Maitreyi, should be realised --- should be heard of, reflected on and meditated upon.
By the realisation of the Self, my dear, through hearing, reflection and meditation,
all this is known.
In short koi maata pita putra patni etc kisi ke sukh ke lie use pyaar nahi karti sab apne sukh ke lie pyaar karte hai brahmaand ke jitne jeev hai SAB SWARTHI HAIII....
Om Namah Shivay.