6/23/2017

ध्यान और पीडा

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*तिसरा प्रश्न : भगवान!.. ध्यान में अक्सर शारीरिक पीड़ा बनती है चित्तविक्षेप जब पीड़ा हो रही हो तो क्या आप पीड़ा पर भी ध्यान करने के लिए कहेंगे?*

*ओशो :*

इसी की तो बात कर रहा था मैं। यदि तुम पीड़ा अनुभव करते हो तो उसके प्रति सजग, ध्यानमय रहना, कुछ करना मत। ध्यान सबसे बड़ी तलवार है—यह हर चीज काट देती है। तुम बस ध्यान देना पीड़ा पर।

उदाहरण के लिए, तुम ध्यान के अंतिम चरण में चुपचाप बैठे हुए होते हो, बिना हिले—डुले, और तुम शरीर में बहुत—सी समस्याएं अनुभव करते हो। तुम्हें लगता है कि टल एकदम सुन्न होती जा रही है, हाथ में कुछ खुजली हो रही है, तुम्हें लगता है शरीर पर चींटियां रेंग रही हैं। बहुत बार देख लिया तुमने और वहां चींटियां हैं ही नहीं। वह रेंगाहट भीतर होती है, कहीं बाहर नहीं।

तो तुम्हें करना क्या होगा? तुम्हें तो लगता है टांग खत्म हो रही है—ध्यानपूर्ण हो जाओ, अपना समग्र ध्यान ही लगा दो उस ओर। तुम्हें खुजली हो रही है? मत खुजलाना। उससे कोई मदद न मिलेगी। तुम केवल ध्यान दो। अपनी आंखें तक भी मत खोलना। केवल अपना ध्यान लगाना भीतर की ओर और मात्र प्रतीक्षा करना और देखना। कुछ पलों के भीतर ही वह खुजली मिट चुकी होगी।

जो कुछ भी घटता है—यदि तुम्हें पीड़ा भी होती है, पेट में या सिर में होती है तीव्र पीड़ा, वह होती है क्योंकि ध्यान में सारा शरीर परिवर्तित होता है। वह बदलता है अपना रसायन। नयी चीजें घटनी शुरू होती हैं और शरीर एक अराजकता में होता है। कई बार पेट पर पड़ेगा प्रभाव, क्योंकि पेट में तुमने दबायी होती हैं बहुत भावनाएं, और वे सब झकझोर दी जाती हैं।

कई बार तुम वमन कर देना चाहोगे, तुम अनुभव करोगे मिचलाहट; कई बार तुम सिर में तीव्र पीड़ा अनुभव करोगे। क्योंकि ध्यान परिवर्तित कर रहा होता है तुम्हारे मस्तिष्क के आंतरिक ढाचे को। ध्यान की राह से गुजरते हुए तुम वस्तुत: ही एक अव्यवस्था में होते हो। जल्दी ही चीजें सुव्यवस्थित हो जाएंगी। लेकिन कुछ समय के लिए, हर चीज रहेगी अस्थिर, अव्यवस्थित।

तो तुम्हें करना क्या होता है? तुम सिर्फ देखना सिर की पीड़ा को, उसे देखना। तुम हो जाना द्रष्टा। तुम बिलकुल भूल ही जाना कि तुम कर्ता हो, और धीरे — धीरे हर चीज शात हो जाएगी और इतनी सुंदरता से, इतनी लालित्य— पूर्ण ढंग से शात होगी कि तुम्हें विश्वास नहीं आ सकता जब तक कि तुम उसे जान ही नहीं लेते।

केवल पीड़ा ही नहीं मिटती है सिर की—क्योंकि यदि देखते हो तो वह ऊर्जा जो पीड़ा निर्मित कर रही थी, तिरोहित हो जाती है—वही ऊर्जा बन जाती है सुख।

ऊर्जा एक ही होती है। पीड़ा या सुख वह एक ही ऊर्जा के दो आयाम हैं। यदि तुम मौन बैठे रह सकते हो और ध्यान दे सकते हो ध्यान— भंग होने की ओर, तो सारी विभ्रांतिया तिरोहित हो जाती हैं। और जब सारी विभ्रांतिया तिरोहित हो जाती हैं, तो तुम अकस्मात सजग हो जाओगे कि सारा शरीर तिरोहित हो चुका है।

वस्तुत: क्या घट रहा था? क्यों घट रही थीं ये बातें तूम जब तुम ध्यान नहीं करते तो ये नहीं घटतीं। सारा दिन तुम वैसे ही मौजूद होते हो और हाथ कभी नहीं खुजलाता, सिर में कोई दर्द नहीं होता, पेट बिलकुल ठीक—ठाक होता है और टलें ठीक रहती हैं। हर चीज ठीक होती है। वस्तुत: क्या घट रहा था ध्यान में? ध्यान में ये चीजें अचानक क्यों घटने लगती हैं?

शरीर मालिक बना रहा है बहुत लंबे समय से, और ध्यान में तुम शरीर को इसकी मालकियत से बाहर फेंक रहे होते हो। तुम उतार दे रहे हो उसे सिंहासन से। वह चिपकता है; वह हर तरह से कोशिश करता है मालिक बने रहने की। वह तुम्हें विभ्रांत करने को बहुत चीजें निर्मित करेगा जिससे कि ध्यान खो जाये। तुम संतुलन से दूर हट जाते हो और शरीर फिर आ चढ़ता है सिंहासन पर। अब तक, शरीर ही बना रहा है मालिक और तुम बने रहे हो गुलाम।

ध्यान द्वारा, तुम बदल रहे हो सारी चीज को ही, यह एक बड़ी क्रांति है और निस्संदेह कोई शासक सत्ता के बाहर होना नहीं चाहता। शरीर राजनीतिया चलाता है—यही तो घट रहा है। जब वह निर्मित करता है काल्पनिक पीड़ा : खुजली, चींटियों का रेंगना तो शरीर कोशिश कर रहा होता है तुम्हारा ध्यान भंग करने की।

ऐसा स्वाभाविक है, क्योंकि इतने लंबे समय से शरीर के पास सत्ता बनी रही है। बहुत जन्मों से यह बना रहा सम्राट और तुम बने रहे गुलाम। अब तुम बदल रहे हो—हर चीज उलट—पुलट गयी है। तुम अपने सिंहासन को वापस ले रहे होते हो। ऐसा स्वाभाविक है कि तुम्हारी शाति भंग करने को जो कुछ किया जा सकता है वह कुछ करना ही चाहिए शरीर को। यदि तुम अ-शांत हो जाते हो, तो तुम भटक जाते हो।

साधारणतया लोग इन चीजों को दबा देते हैं। वे जप करने लगेंगे किसी मंत्र का। वे नहीं ध्यान देंगे शरीर पर।

मैं तुम्हें किसी प्रकार का दमन नहीं सिखा रहा हूं। मैं सिखाता हूं केवल जागरूकता। तुम मात्र देखो, ध्यान दो। क्योंकि वह झूठ है भ्रम है, तुरंत तिरोहित हो जायेगा वह।

जब सारी पीड़ाएं और खुजलाहटें और चींटियां गायब हो चुकी होती हैं और शरीर गुलाम होने के अपने सही स्थान पर जा बैठा होता है, तो अकस्मात इतना आनंद उमगने लगता है कि तुम उसको अपने में समा नहीं सकते हो। अचानक इतना अधिक उत्सव उमड़ने लगता है तुम्हारे भीतर कि तुम उसे अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते; उमड़ने लगती है कहीं पार की समझ की शाति, उमडूने लगता है एक आनंद जो कि इस संसार का नहीं होता।

��✨��  *ओशो*  ��✨��