7/17/2017

कमल खिलते है किचड में

मैं संसार की कीचड़ से मुक्त होना चाहता हूं लेकिन आप तो उसे पलायन कहते हैं। मैं क्या करूं?संसार को कीचड़ कहोगे, वहीं से चूक शुरू हो गई। संसार में खिले कमल तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते? बुद्ध कहां खिले? महावीर कहां खिले? कबीर कहां खिले? ये जो जगजीवन के सूत्रों पर हम विचार कर रहे हैं, ये सूत्र कहां जन्मे? यह जगजीवन का गीत कहां उठा? इसी संसार में। इसी कीचड़ में।

तो कीचड़ को सिर्फ कीचड़ ही मत कहो, इसमें कमल भी होते हैं। कीचड़ कमल की जननी है। सम्मान करो। कीचड़ के बिना कमल कहां? कीचड़ को छोड्कर भाग जाओगे तो फिर कमल कैसे पैदा होगा? कीचड़ का उपयोग करो। कमल कीचड़ की संभावना है। कमल कीचड़ में दबा पड़ा है। खोजो। तलाशो। मिलेगा। मिला है, तुम्हें भी मिलेगा। भागकर कहां जाओगे? और कीचड़ से भाग गए तो कमल से भी भाग गए; याद रखना। सूखोगे, लेकिन जीवन में सुगंध कभी न उठेगी।

इसलिए मैं कहता हूं संसार से भागना भगोड़ाफन है, फलायन है। संसार का उपयोग करो। संसार एक अवसर है—एक महान अवसर। एक चुनौती, जहां प्रतिपल तुम्हें जगाने के लिए कितना आयोजन परमात्मा करता है। किसी के मुंह से गाली आ जाती है तुम्हारे लिए। अगर तुम समझदार हो तो गाली जगाएगी। कोई निंदा कर गया तो निंदा जगाएगी। किसी से टक्कर हो गई तो टक्कर जगाएगी। क्रोध आया, क्रोध से जलन हुई,भीतर घाव बने, छाले उठे तो क्रोध जगाएगा। करुणा उठी, रस बहा तो करुणा जगाएगी। प्रेम उफजेगा,प्रार्थना बनी तो प्रार्थना जगाएगी। यहां दुःख भी जगाएगा, सुख भी जगाएगा। और संसार सुख—दुःख की कीचड़ है। लेकिन इसी सुख—दुःख की कीचड़ में,इसी सुख—दुःख के तनाव में कमल के अपूर्व फूल भी खिलते हैं।
यहां बीज पड़े हैं। इसी कीचड़ में दबे पड़े हैं। समझदार तो जहर को भी अमृत बना लेता है। नासमझ अमृत को भी जहर कर लेता है।

जिनने तुमसे कहा है, संसार से भाग जाओ, वे नासमझ ही लोग हो सकते हैं। और इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं तुमसे कह रहा हूं कि कभी—कभार अगर तुम पहाड़ चले जाओ और थोड़े दिन वहां मौन और एकांत में रह आओ तो कुछ बुरा है। लेकिन ध्यान रखना, लौट यहीं आना है। पहाड़ तुम्हारी आदत नहीं बननी चाहिए। पहाड़ तुम्हारी लत नहीं बननी चाहिए। पहाड़ तुम्हारी आसक्ति नहीं बननी चाहिए। ऐसा न हो कि जंगल की शांति से ऐसी आसक्ति लग जाए कि फिर बाजार का कोलाहल बिल्कुल न सह सको। यह तो और हार हो गई। यह तो और कमजोरी हो गई। यह तो तुम पहले से भी ज्यादा दीन हो गए।

जंगल की शांति, कभी—कभी जाओ, भोगो। वह भी संसार है—संसार का दूसरा पहलू। उसे भी भोगो लेकिन लौट आओ बाजार में। असली परीक्षा बाजार में है। और जिस दिन तुम पाओ : जंगल में तुम जितने शांत, उतने ही बाजार में शांत, उस दिन समझना, कुछ हुआ; उसके पहले नहीं। उस दिन समझना, कुछ हुआ। उस दिन समझना, अब अपना स्वरूप मिला। अब परिस्थिति अनुकूल हो कि प्रतिकूल, भेद नहीं पड़ता। हार हो कि जीत, भीतर की मौज अछूती रहती है। सुख आए कि दुःख, भीतर का गीत वैसा का वैसा। जीवन हो कि मृत्यु, भीतर सब अस्पर्शित।

उस अस्पर्शित दशा का नाम ही संन्यास है। संन्यास का अर्थ नहीं है संसार के विपरीत। संन्यास का अर्थ है : द्वंद्व के बीच में निर्द्वंद्व रहने की कला।
और जिस दिन तुम पाओगे कि कीचड़ में कमल खिलता है, उस दिन तुम परमात्मा को धन्यवाद देने में निश्चित ही सफल होओगे। बस उसी दिन सफल होओगे;उसके पहले नहीं। अभी तो तुम्हारे मन में कीचड़ है—परमात्मा ने कहां पटक दिया! तुम जैसे प्यारे आदमी को कहां कीचड़ में पटक दिया! कहां हीरे को कीचड़ में डाल दिया! शिकायत ही शिकायत है मन में तुम्हारे। इस शिकायत में कैसे तो प्रार्थना जन्मे? इस शिकायत में कैसे तो पूजा बने? इस शिकायत में कैसे तो अर्चना का थाल सजे? इस शिकायत में कहां तो गंध, कहां सुगंध, कहां धूप, कहां दीप।

प्रार्थना तो तब उठती है, जब जैसा परमात्मा ने दिया है, शुभ है; जैसा दिया है यही श्रेष्ठ है; जैसा है इससे ज्यादा पूर्णतर हो ही नहीं सकता—ऐसा भाव जब सघन होता है, उसी सघनता से धन्यवाद उठता है, कृतज्ञता उठती है।
मैं तुमसे संसार छोड़ने को नहीं कहता। ही, कभी—कभी छुट्टी ले लो संसार से। दिन—दो चार दिन,महीने—पंद्रह दिन चले जाओ जंगल में, मगर फिर लौट आना। और हर बार आना—जाना तुम्हारी गहराई को बढ़ाका, ऊंचाई को बढ़ाका।
कीचड़ में खिले कमल—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 2 अगस्‍त,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।