3/20/2022

post 2

जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उससे तुम घृणा क्यों करते हो? प्रेम एक जरूरत है, और प्रेम की ही भांति एक दूसरी भी जरूरत है, वह है स्वतंत्रता। जिस क्षण तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम उस पर निर्भर महसूस करने लगते हो, तुम्हारी स्वतंत्रता खो गई। और जो र्व्याक्ते तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा है उसे तुम घृणा करोगे ही। और जो व्यक्ति तुम्हें निर्भर बना रहा है वह तुम्हें दुश्मन ही नहीं मालूम पड़ेगा बल्कि कट्टर दुश्मन मालूम पड़ेगा, क्योंकि वह तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी आजादी, तुम्हारी निजता को नष्ट कर रहा है। लेकिन प्रेम एक जरूरत है, इसलिए तुम स्वतंत्रता की कीमत पर प्रेम को पूरा करते हो; इसीलिए तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो और तुम उसी से घृणा भी करते हो।

फिर दूसरी समस्या सामने आती है जिस क्षण तुम किसी के प्रेम में होते हो, तुम अपने होश में नहीं रहते। तुम पागल हो जाते हो। सचमुच तुम पागल हो जाते हो। तुम सजग नहीं रहते, तुम होश में नहीं रहते। तुम ऐसे चल रहे होते हो जैसे नींद में। और यदि दूसरा आदमी भी तुम्हारी ही तरह है—और मनोचिकित्सक वैसा ही है, कोई भी भेद नहीं है, उसकी चेतना तुम्हारी चेतना से ऊंची नहीं है—तब वह भी नींद में चल रहा है। नींद में चल रहे दो आदमी टकरायेंगे ही। वे द्वंद्व में पड़ेंगे, संघर्ष में पड़ें
जबकि स्व बोध व्यक्ति के तुम प्रेम में पड़ो वह ऐसी स्थिरता का व्यक्ति होता है
 कि तुम उसे नीचे न खींच सको, चाहे तुम कुछ भी करो
धीरे— धीरे उनके निकट रहते—रहते, कामुकता गिर जायेगी और प्रेम शुद्ध होगा—आत्मिक हो जायेगा

केनोउपनिषद-

ओशो

post 1

 “प्रेम दगाबाज़ है ! ” – ओशो

तुम एक प्रेम में पड़ गए। तुमने एक स्त्री को चाहा, एक पुरुष को चाहा, खूब चाहा। जब भी तुम किसी को चाहते हो, तुम चाहते हो तुम्हारी चाह शाश्वत हो जाए। जिसे तुमने प्रेम किया वह प्रेम शाश्वत हो जाए। यह हो नहीं सकता। यह वस्तुओं का स्वभाव नहीं। तुम भटकोगे। तुम रोओगे। तुम तड़पोगे। तुमने अपने विषाद के बीज बो लिए। तुमने अपनी आकांक्षा में ही अपने जीवन में जहर डाल लिया।

यह टिकने वाला नहीं है। कुछ भी नहीं टिकता यहां। यहां सब बह जाता है। आया और गया। अब तुमने यह जो आकांक्षा की है कि शाश्वत हो जाए, सदा—सदा के लिए हो जाए; यह प्रेम जो हुआ, कभी न टूटे, अटूट हो; यह श्रृंखला बनी ही रहे, यह धार कभी क्षीण न हो, यह सरिता बहती ही रहे—बस, अब तुम अड़चन में पड़े। आकांक्षा शाश्वत की और प्रेम क्षणभंगुर का; अब बेचैनी होगी, अब संताप होगा। या तो प्रेम मर जाएगा या प्रेमी मरेगा। कुछ न कुछ होगा। कुछ न कुछ विध्‍न पड़ेगा। कुछ न कुछ बाधा आएगी।

ऐसा ही समझो, हवा का एक झोंका आया और तुमने कहा, सदा आता रहे। तुम्हारी आकांक्षा से तो हवा के झोंके नहीं चलते। वसंत में फूल खिले तो तुमने कहा सदा खिलते रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो फूल नहीं खिलते। आकाश में तारे थे, तुमने कहा दिन में भी रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो तारे नहीं संचालित होते। जब दिन में तारे न पाओगे, दुखी हो जाओगे। जब पतझड़ में पत्ते गिरने लगेंगे, और फूलों का कहीं पता न रहेगा, और वृक्ष नग्न खड़े होंगे दिगंबर, तब तुम रोओगे, तब तुम पछताओगे। तब तुम कहोगे, कुछ धोखा दिया, किसी ने धोखा दिया।

किसी ने धोखा नहीं दिया है। जिस दिन तुम्हारा और तुम्हारी प्रेयसी के बीच प्रेम चुक जाएगा, उस दिन तुम यह मत सोचना कि प्रेयसी ने धोखा दिया है; यह मत सोचना कि प्रेमी दगाबाज निकला। नहीं, प्रेम दगाबाज है। न तो प्रेयसी दगाबाज है, न प्रेमी दगाबाज है—प्रेम दगाबाज है।

जिसे तुमने प्रेम जाना था वह क्षणभंगुर था, पानी का बबूला था। अभी—अभी बड़ा होता दिखता था। पानी के बबूले पर पड़ती सूरज की किरणें इंद्रधनुष का जाल बुनती थीं। कैसा रंगीन था! कैसा सतरंगा था! कैसे काव्य की स्फुरणा हो रही थी! और अभी गया। गया तो सब गए इंद्रधनुष! गया तो सब गए सुतरंग। गया तो गया सब काव्य! कुछ भी न बचा।

क्षणभंगुर से हमारा जो संबंध हम बना लेते हैं और शाश्वत की आकांक्षा करने लगते हैं उससे दुख पैदा होता है। शाश्वत जरूर कुछ है; नहीं है, ऐसा नहीं। शाश्वत है। तुम्हारा होना शाश्वत है। अस्तित्व शाश्वत है। आकांक्षा कोई भी शाश्वत नहीं है। दृश्य कोई भी शाश्वत नहीं है। लेकिन द्रष्टा शाश्वत है।

– ओशो
[अष्‍टावक्र महागीता]