जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उससे तुम घृणा क्यों करते हो? प्रेम एक जरूरत है, और प्रेम की ही भांति एक दूसरी भी जरूरत है, वह है स्वतंत्रता। जिस क्षण तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम उस पर निर्भर महसूस करने लगते हो, तुम्हारी स्वतंत्रता खो गई। और जो र्व्याक्ते तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा है उसे तुम घृणा करोगे ही। और जो व्यक्ति तुम्हें निर्भर बना रहा है वह तुम्हें दुश्मन ही नहीं मालूम पड़ेगा बल्कि कट्टर दुश्मन मालूम पड़ेगा, क्योंकि वह तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी आजादी, तुम्हारी निजता को नष्ट कर रहा है। लेकिन प्रेम एक जरूरत है, इसलिए तुम स्वतंत्रता की कीमत पर प्रेम को पूरा करते हो; इसीलिए तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो और तुम उसी से घृणा भी करते हो।
फिर दूसरी समस्या सामने आती है जिस क्षण तुम किसी के प्रेम में होते हो, तुम अपने होश में नहीं रहते। तुम पागल हो जाते हो। सचमुच तुम पागल हो जाते हो। तुम सजग नहीं रहते, तुम होश में नहीं रहते। तुम ऐसे चल रहे होते हो जैसे नींद में। और यदि दूसरा आदमी भी तुम्हारी ही तरह है—और मनोचिकित्सक वैसा ही है, कोई भी भेद नहीं है, उसकी चेतना तुम्हारी चेतना से ऊंची नहीं है—तब वह भी नींद में चल रहा है। नींद में चल रहे दो आदमी टकरायेंगे ही। वे द्वंद्व में पड़ेंगे, संघर्ष में पड़ें
जबकि स्व बोध व्यक्ति के तुम प्रेम में पड़ो वह ऐसी स्थिरता का व्यक्ति होता है
कि तुम उसे नीचे न खींच सको, चाहे तुम कुछ भी करो
धीरे— धीरे उनके निकट रहते—रहते, कामुकता गिर जायेगी और प्रेम शुद्ध होगा—आत्मिक हो जायेगा
केनोउपनिषद-
ओशो
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