परमात्मा का होना अगर सबसे बड़ा सच है, तो मेरा होना सबसे बड़ा झूठ है। क्योंकि यहां दो मैं तो हो ही नहीं सकते। अस्तित्व तो एक है। एक ही मैं हो सकता है। पूरा अस्तित्व अगर एक है तो इसका एक ही केंद्र हो सकता है। लेकिन हर व्यक्ति, हर बूंद घोषणा करती है अपने मैं की।
ज्ञानी को यही शर्म आती है। वह लज्जा से भर जाता है। कितनी अतिशयोक्ति की! कितनी अपनी घोषणा की, जहां कुछ भी न था। पानी का बबूला था, जरा सा छुआ कि टूट गया। कागज की नाव थी, बही नहीं कि डूब गयी। ताश के पत्तों का घर था, हवा आयी नहीं कि गिर गया। पर कितने-कितने दावे किए! कितनी घोषणाएं कीं!
तुम्हारा होना सिर्फ नुकसान पहुंचाने का दावा है। वह हिंसा की एक घोषणा है। तुम उसी वक्त कहते हो--कि मैं कौन हूं जानते हो--जब तुम दावा करना चाहते हो कि मैं चाहूं तो विध्वंस कर सकता हूं।
तुम्हारी सारी अकड़ हिंसा है। अहंकार हिंसा का सूत्र है। जानने वाला तो कहता है, मैं कहां हूं! पता ही नहीं चलता। मैं कौन हूं! कुछ पता नहीं चलता। जानने वाला तो खो जाता है। अज्ञानी अकड़ा रहता है। जो नहीं है वह तो कहता है, मैं हूं। और जो हो जाता है, वह यह भाषा बोलना बंद कर देता है।
ओशो❤
🌹एक ओंकार सतनाम-18 (नानक)🌹