आधुनिक मनोविज्ञान अब स्वीकार करता है कि कोई पुरुष, न तो केवल पुरुष है, और न कोई स्त्री, केवल स्त्री है। दोनों के भीतर दोनों हैं। होना भी चाहिए, क्योंकि आपका जन्म होता है स्त्री, पुरुष से मिलकर। इसलिए न तो आप पुरुष हो सकते हैं और न स्त्री पूरे-पूरे। आप आधे-आधे होंगे। आपकी जो पहली इकाई निर्मित होती है, उसमें आधी स्त्री है और आधा पुरुष है। फिर चाहे अब आप स्त्री हों और चाहे पुरुष, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपकी जो मिलावट है, आपकी जो बुनियादी आधार-शिला है, उसमें आधा स्त्री का दान है, आधा पुरुष का। और यह दान कभी नष्ट नहीं हो सकता, आप कुछ भी बन जाएं, आपमें आधी स्त्री होगी और आधा पुरुष होगा। आपके भीतर दो ऊर्जाएं मिली हैं, दो शरीर मिले हैं। और इन दोनों शरीरों का जोड़ है, और दो ऊर्जाओं का जोड़ है, जिससे आप एक व्यक्ति बने।
आपका वीर्य-कण दो तरह की आकांक्षाएं रखता है। एक आकांक्षा तो रखता है बाहर की स्त्री से मिलकर, फिर एक नए जीवन की पूर्णता पैदा करने की। एक और गहन आकांक्षा है, जिसको हम अध्यात्म कहते हैं, वह आकांक्षा है, स्वयं के भीतर की छिपी स्त्री या स्वयं के भीतर छिपे पुरुष से मिलने की। अगर बाहर की स्त्री से मिलना होता है, तो संभोग घटित होता है। वह भी सुखद है, क्षण भर के लिए। अगर भीतर की स्त्री से मिलना होता है, तो समाधि घटित होती है। वह महासुख है, और सदा के लिए। क्योंकि बाहर की स्त्री से कितनी देर मिलिएगा? वह मिलन छूट जाता है क्षण भर में। क्षण भर को भी मिलन हो जाए तो बहुत मुश्किल है। देह ही मिल पाती है, मन नहीं मिल पाते; मन भी मिल जाए, तो आत्मा नहीं मिल पाती। और सब भी मिल जाए तो मिलन क्षण भर ही हो सकता है। भीतर की स्त्री से मिलना शाश्वत हो सकता है। उस शाश्वत मिलने के कारण ही समाधि फलित होती है।
बाहर की स्त्री से मिलना है, तो वीर्य-कण की जो देह है, उसके सहारे ही मिलना पड़ेगा, क्योंकि देह का मिलन तो देह के सहारे ही हो सकता है। अगर भीतर की स्त्री से मिलना है तो देह की कोई जरूरत नहीं है। वीर्य-कण की देह तो अपने केंद्र में, काम-केंद्र में पड़ी रह जाती है; और वीर्य-कण की ऊर्जा उससे मुक्त हो जाती है। वही ऊर्जा भीतर की स्त्री से मिल जाती है। इस मिलन की जो आत्यंतिक घटना है, वह सहस्रार में घटित होती है। क्योंकि सहस्रार ऊर्जा का श्रेष्ठतम केंद्र है, और काम-केंद्र देह का श्रेष्ठतम केंद्र है।
काम है निम्नतम केंद्र और सहस्रार है उच्चतम केंद्र। ऊर्जा शुद्ध हो जाती है सहस्रार में पहुंच कर; सिर्फ ऊर्जा रह जाती है, प्योर इनर्जी। और सहस्रार में आपकी स्त्री प्रतीक्षा कर रही है। और आप अगर स्त्री हैं, तो सहस्रार में आपका पुरुष आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। यह भीतरी मिलन है। इस मिलन को ही हमने अर्धनारीश्वर कहा है।
हमने शंकर की मूर्ति बनाई है--आधा पुरुष और आधी स्त्री की। आधा अंग पुरुष का है और आधा अंग स्त्री का है। यह इस गहन मिलन की सूचना है। और जो अर्धनारीश्वर का मिलन है, यह होता है कैलाश में, गौरीशंकर पर। वह जो आपके भीतर श्रेष्ठतम शिखर है हिमालय का--सहस्रार, कैलाश, गौरीशंकर, जो भी नाम दें, वहां मिलन घटित होता है।
निम्नतम तल है काम-केंद्र का, वहां तो पशु भी मिल लेते हैं, वहां मिलन होता है संभोग का। श्रेष्ठतम केंद्र है मिलन का, समाधि का, वहां कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर अपने भीतर की स्त्री या अपने भीतर के पुरुष को खोज पाता है। और जिस दिन यह घटना घटती है, उसी दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है; उसके पहले नहीं हो सकता है। जब भीतर की स्त्री मिल गई, तो फिर बाहर की स्त्री की कोई चिंता नहीं रह जाती है। जब भीतर का पुरुष मिल गया, तब फिर बाहर के पुरुष की खोज नहीं रह जाती है। और जब तक यह मिलन नहीं होता, तब तक यह खोज जारी ही रहेगी।
समाधि के सप्त द्वारओशो