7/26/2017

You are that already

You are discovering that even the seeker is a phantom. This one is already late. You ARE already Here. You are timeless. When you are timeless, everything else is late. Because whatever happens, you ARE already Here. Something is practising to reach you, but you are already watching this.

Sri Mooji-

आधुनिक मनोविज्ञान अब स्वीकार करता है कि कोई पुरुष, न तो केवल पुरुष

आधुनिक मनोविज्ञान अब स्वीकार करता है कि कोई पुरुष, न तो केवल पुरुष है, और न कोई स्त्री, केवल स्त्री है। दोनों के भीतर दोनों हैं। होना भी चाहिए, क्योंकि आपका जन्म होता है स्त्री, पुरुष से मिलकर। इसलिए न तो आप पुरुष हो सकते हैं और न स्त्री पूरे-पूरे। आप आधे-आधे होंगे। आपकी जो पहली इकाई निर्मित होती है, उसमें आधी स्त्री है और आधा पुरुष है। फिर चाहे अब आप स्त्री हों और चाहे पुरुष, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपकी जो मिलावट है, आपकी जो बुनियादी आधार-शिला है, उसमें आधा स्त्री का दान है, आधा पुरुष का। और यह दान कभी नष्ट नहीं हो सकता, आप कुछ भी बन जाएं, आपमें आधी स्त्री होगी और आधा पुरुष होगा। आपके भीतर दो ऊर्जाएं मिली हैं, दो शरीर मिले हैं। और इन दोनों शरीरों का जोड़ है, और दो ऊर्जाओं का जोड़ है, जिससे आप एक व्यक्ति बने।

आपका वीर्य-कण दो तरह की आकांक्षाएं रखता है। एक आकांक्षा तो रखता है बाहर की स्त्री से मिलकर, फिर एक नए जीवन की पूर्णता पैदा करने की। एक और गहन आकांक्षा है, जिसको हम अध्यात्म कहते हैं, वह आकांक्षा है, स्वयं के भीतर की छिपी स्त्री या स्वयं के भीतर छिपे पुरुष से मिलने की। अगर बाहर की स्त्री से मिलना होता है, तो संभोग घटित होता है। वह भी सुखद है, क्षण भर के लिए। अगर भीतर की स्त्री से मिलना होता है, तो समाधि घटित होती है। वह महासुख है, और सदा के लिए। क्योंकि बाहर की स्त्री से कितनी देर मिलिएगा? वह मिलन छूट जाता है क्षण भर में। क्षण भर को भी मिलन हो जाए तो बहुत मुश्किल है। देह ही मिल पाती है, मन नहीं मिल पाते; मन भी मिल जाए, तो आत्मा नहीं मिल पाती। और सब भी मिल जाए तो मिलन क्षण भर ही हो सकता है। भीतर की स्त्री से मिलना शाश्वत हो सकता है। उस शाश्वत मिलने के कारण ही समाधि फलित होती है।

बाहर की स्त्री से मिलना है, तो वीर्य-कण की जो देह है, उसके सहारे ही मिलना पड़ेगा, क्योंकि देह का मिलन तो देह के सहारे ही हो सकता है। अगर भीतर की स्त्री से मिलना है तो देह की कोई जरूरत नहीं है। वीर्य-कण की देह तो अपने केंद्र में, काम-केंद्र में पड़ी रह जाती है; और वीर्य-कण की ऊर्जा उससे मुक्त हो जाती है। वही ऊर्जा भीतर की स्त्री से मिल जाती है। इस मिलन की जो आत्यंतिक घटना है, वह सहस्रार में घटित होती है। क्योंकि सहस्रार ऊर्जा का श्रेष्ठतम केंद्र है, और काम-केंद्र देह का श्रेष्ठतम केंद्र है।

काम है निम्नतम केंद्र और सहस्रार है उच्चतम केंद्र। ऊर्जा शुद्ध हो जाती है सहस्रार में पहुंच कर; सिर्फ ऊर्जा रह जाती है, प्योर इनर्जी। और सहस्रार में आपकी स्त्री प्रतीक्षा कर रही है। और आप अगर स्त्री हैं, तो सहस्रार में आपका पुरुष आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। यह भीतरी मिलन है। इस मिलन को ही हमने अर्धनारीश्वर कहा है।

हमने शंकर की मूर्ति बनाई है--आधा पुरुष और आधी स्त्री की। आधा अंग पुरुष का है और आधा अंग स्त्री का है। यह इस गहन मिलन की सूचना है। और जो अर्धनारीश्वर का मिलन है, यह होता है कैलाश में, गौरीशंकर पर। वह जो आपके भीतर श्रेष्ठतम शिखर है हिमालय का--सहस्रार, कैलाश, गौरीशंकर, जो भी नाम दें, वहां मिलन घटित होता है।

निम्नतम तल है काम-केंद्र का, वहां तो पशु भी मिल लेते हैं, वहां मिलन होता है संभोग का। श्रेष्ठतम केंद्र है मिलन का, समाधि का, वहां कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर अपने भीतर की स्त्री या अपने भीतर के पुरुष को खोज पाता है। और जिस दिन यह घटना घटती है, उसी दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है; उसके पहले नहीं हो सकता है। जब भीतर की स्त्री मिल गई, तो फिर बाहर की स्त्री की कोई चिंता नहीं रह जाती है। जब भीतर का पुरुष मिल गया, तब फिर बाहर के पुरुष की खोज नहीं रह जाती है। और जब तक यह मिलन नहीं होता, तब तक यह खोज जारी ही रहेगी।

समाधि के सप्‍त द्वार��ओशो

Non attachment

“Nonattachment is a natural quality of your Absolute nature. The Absolute knows no attachment or grasping or aversion. It is a completely neutral force. And out of this neutral nonattached force arises universal Love and compassion. A big part of any meaningful spiritual practice is developing nonattachment. Nonattachment without and love or compassion is just the ego protecting itself, while all authentic nonattachment will be expressed as Love and Transcendental Wisdom.

To abide in the I AM-ness is to be nonattached to the contents of your mind. When you are truly nonattached the presence or absence of thoughts will not disturb you in the slightest, and will open the door wide open to realizing what you are.”

~ Adyashanti

"Exploring the Teachings of Nisargadatta Maharaj" Online Course

बाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा

बाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्तें पूरी करनी पड़ें–काया, वचन, मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। यह चेष्टा शुरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। कठिन होगा, असंभव नहीं।

और महावीर कहते हैं, जिस सुई में धागा पिरो लिया गया, वह गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है।

यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सुई में पोना ही है। इसे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं; वापिस उठ आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कारण है।

जिन सूत्र

ओशो

Bliss

प्रश्न : - ब्रह्म में रमण करने वाला क्या सचमुच भोग में रत हो
          सकता है , अथवा वह उसका अभिनय करता है ?

ओशो :- ब्रह्म में रमण करने वाला ही केवल भोग में रत होता है ।
            वही केवल भोगता है , परम आनंद को वही भोगता है ।
            बाकी सब धोखे में हैं कि भोग रहे हैं ।
            बाकी तो खोटे सिक्के ढो रहे हैं ।
            भोग के नाम पर दुख भोग रहे हैं ।

तुम्हारे भोग को अगर सार-संक्षिप्त में कहा जाये तो दुख है ।
वही तुमने भोगा है । और क्या भोगा है ?
कहते तुम हो कि हम सुख भोग रहे हैं -- भोगते तुम दुख हो !

ब्रह्मज्ञानी ही केवल भोगता है । तेन त्यक्तेन भुंजीथाः --
जिन्होंने त्यागा उन्होंने ही भोगा । वह परमात्मा को भोगता है ।
तुम क्षुद्र को भोग रहे हो । और क्षुद्र को भोगकर महादुख पा
रहे हो ।

रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी आया और उनके चरणों
में उसने बहुत से रुपये रखे । रामकृष्ण ने कहा , ले जा भाई ।
उस आदमी ने कहा कि आप महा-त्यागी -- इसका और एक
सबूत मिला । रामकृष्ण कहने लगे , महात्यागी तू है , हम नहीं ;
क्योंकि हम तो परमात्मा को भोग रहे हैं , तू छोड़ रहा है ।
तू धन बटोर रहा है , हम परमात्मा बटोर रहे हैं -----
त्यागी कौन है और भोगी कौन है ? भोगी हम हैं , त्यागी तू है ।

कंकड़-पत्थर जो बीन रहा है और हीरों को छोड़ रहा है , उसको
भोगी कहोगे या त्यागी ? व्यर्थ को जो संभाल रहा है और सार्थक
को गँवा रहा है , उसको ही त्यागी कहना चाहिये ।

ब्रह्म-रमण परम भोग है । वह जीवन के परम आनंद में प्रवेश है ।
उससे बडा़ फिर कोई आनंद नहीं ।
उसके अतिरिक्त सब दुख है ।

इसलिए तुम यह तो पूछो ही मत कि ब्रह्म में रमण करने वाला
क्या सचमुच भोग में रत हो सकता है । तुम्हारे भोग में रत नहीं
हो सकता , क्योंकि तुम्हारा भोग भोग ही नहीं है ।
वह भोग में ही रत है , लेकिन उसका और ही भोग है ।
उस भोग को जानने के लिए , तुम्हें अपना भोग खोना पडे़ ,
होश जगाना पडे़ । तुम सपने में हो ।
अभी तुमने भोगा कुछ भी नहीं है , केवल भोग के सपने देखे हैं ।
ब्रह्मज्ञानी को सत्य का भोग उपलब्ध हुआ है ,
परम-भोग उपलब्ध हुआ है ।

!! ओशो !!

भज गोविन्दम्
तर्क का सम्यक प्रयोग - प्रवचन ६
से संकलित एक प्रश्नोत्तर
दिनांक १६-११-१९७५
पूना ।।

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