• अवधूत •
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बाबा मलूकदास एक अवधूत हैं ।
अवधूत का अर्थ है - संन्यास की परम अवस्था जहां न कोई नियम शेष रह जाते हैं - न कोई मर्यादा ; जहां कुछ शुभ है , और न कुछ अशुभ ; जहां व्यक्ति जीता सहज समाधि से ;
जहां जो हो , वही ठीक है ; जहां स्वीकार संपूर्ण है ;
जहां कोई निषेध नहीं रहा ; क्या करना , क्या न करना -
ऐसी धारणाएं , व्यवस्थाएं , नहीं रहीं ; जहां व्यक्ति फिर से
छोटे बच्चे की भांति हो जाता है ।
अवधूत की दशा को परम-दशा कहा है ; वह पुनर्जन्म है ;
वह नया जन्म है ।
एक जन्म मिलता है मां से, फिर उस जन्म के साथ
आई हुई निर्दोंषता कोमलता , पवित्रता - सब खो जाती है -
समाज की भीड़ में , ऊहापोह में , संसार के जंजाल में । बेईमानी सीखनी पड़ती है , धोखा-घड़ी सीखनी पड़ती है , अविश्वास सीखना पड़ता है ।
तो जिस श्रद्धा को लेकर मनुष्य पैदा होता है , वह धूमिल हो जाती है । फिर उस धूमिल दर्पण में परमात्मा की छबि नहीं बनती । और हजार-हजार विचारों की तरंगें--छबि बिखर-बिखर जाती है । जैसे कभी तरंगें उठी झील में चांद
का प्रतिबिंब बनता है ; तो बन नहीं पाता ; लहरों में टूट जाता
है ; बिखर जाता है । पूरी झील पर चांदी फैल जाती है ।
लेकिन चांद कहां है , कैसा है - यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है ।
झील चाहिए शांत , झील चाहिए निर्मल , तो चांद का मुखड़ा दिखाई पड़ता है । ऐसा ही जब चित्त की झील निर्मल होती है , तो परमात्मा का रूप दिखाई पड़ता है ।
परमात्मा को जानने के लिए शास्त्र की जानकारी नहीं ।
शब्द से मुक्ति चाहिए । और परमात्मा को जानने के लिए
बहुत गणित और तर्क नहीं - निर्दोष मन चाहिए ;
फिर से एक जन्म चाहिए ।
अवधूत का अर्थ है : जो फिर से जन्मा और जिसने फिर से बालक-जैसी सरलता को उपलब्ध कर लिया ।
सारा योग , सारी भक्ति , सारे ध्यान इतना ही करते हैं कि
जो गंदगी और जो कचरा समाज तुम पर जमा देते हैं ,
उसे हटा देते हैं । उनका प्रयोग नकारात्मक है ।
योग या भक्ति तुम्हें कुछ देते नहीं , समाज ने जो दे दिया है, उसे छीन लेते हैं । तुम फिर वैसे के वैसे हो जाते हो ,
जैसा तुम्हें होना था ।
तो निश्चित ही अवधूत की परमदशा में न तो कुछ पुण्य बचता है , न कोई पाप बचा है । अवधूत की परमदशा में तो फिर से बालपन लौटा । और यह बालपन गहरा है - पहले बालपन से ज्यादा गहरा है । क्योंकि पहला बालपन अगर बहुत गहरा होता , तो नष्ट न हो सकता था । नष्ट हो गया । संसार के झंझावात न झेल सका । कच्चा था ; अप्रौढ़ था । सरल तो था ,
लेकिन बुनियाद बहुत मजबूत न थी उस सरलता की ।
जरा से हवा के झोंके आये और झील कंप गई ।
जरा मुसीबतें आई और चित्त उद्विग्न हो गया । वृक्ष तो था , लेकिन जड़ें नहीं थी बहुत गहरी , तो जरा-जरा से हवा के झोंके उसे उखाड़ गये ।
दूसरा जो बचपन है , वह ज्यादा गहरा होगा , क्योंकि स्वयं उपलब्ध किया हुआ होगा ; जागरूक होगा । दूसरा जो बचपन है , उसी को हमने इस देश में द्विज कहा है - दूसरा जन्म ।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं ...। और यह बंटवारा बहुत महत्वपूर्ण है । एक तो वे , जो एक ही बार जन्मते हैं ; उनको ही पारिभाषिक अर्थों में शूद्र कहा जाता है - जो एक ही बार जन्में हैं ; जिन्होंने पहले बचपन को ही सब मान लिया और समाप्त हो गये और जिन्होंने दुबारा जन्म लेने की कोई चेष्टा
न की ।
जो दुबारा जन्म लेता है - द्विज - टवाइस - वही ब्राह्मण है ;
वही ब्रह्म को पाने का हकदार है ।
तो एक हैं : एक ही बार जन्मे - वंस बार्न ; और दूसरे हैं :
दुबारा जन्मे - द्विज - टवाइस बार्न ।
अवधूत दुबारा जन्मा है । तो उसके शरीर की उम्र हो भी सकती है काफी हो - बूढ़ा हो , लेकिन उसके चित्त में कोई उम्र नहीं है , कोई समय नहीं है । उसका चित्त समय से मुक्त है । उसका चित्त छोटे बच्चे की भांति है ।
जीसस एक बाजार में खड़े हैं और किसी ने पूछा ...।
जिसने पूछा , वह धर्मगुरु है ; कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में कौन प्रवेश करेंगे ? कौन न होगे हकदार , कौन होंगे मालिक ?
स्वभावतः उस रब्बी ने सोचा होगा ; जीसस कहेंगे : तुम । क्योंकि वह धर्मगुरु था ; धर्म का ज्ञाता था ; प्रतिष्ठित था । लेकिन जीसस ने उस की तरफ इशारा नहीं किया ।
पास में एक दूसरा आदमी खड़ा था , जिसकी संत की तरह प्रसिद्धि थी कि वह बड़ा पवित्रात्मा है , पुण्यात्मा है ।
उस ने भी गौर से जीसस की तरफ देखा की शायद वे मेरी तरफ इशारा करेंगे , लेकिन नहीं ; जीसस ने उस की तरफ से भी नजर हटा ली । कोई धनी खड़ा था ; कोई प्रतिष्ठित था ; भीड़ में सभी लोग थे , लेकिन जीसस की नजर जा कर रुकी एक छोटे से बच्चे पर । उन्होंने उसे कंधे पर उठा लिया और कहा , जो इस बच्चे की भांति होगे , केवल वे ही ...।
अवधूत का अर्थ है : जो छोटे बच्चे की भांति है ।
तो अवधूत का जो संबंध है परमात्मा से , वह ठीक वैसा ही होगा , जैसा छोटे बच्चे का मां से होता है । परमात्मा उस के लिए कोई बहुत बड़ी और बहुत दूर की बात नहीं है ।
परमात्मा के साथ उसका नाता शिष्टाचार का नहीं है -
प्रेमाचार का है । और प्रेम कोई सीमा मानता ?
कि कोई मर्यादा मानता ?
छोटा बच्चा मां से लड़ता भी है ; छोटा बच्चा मां से उलझता
भी है ; मां से रूठता भी है ; नाराज भी होता है ; उछल-कूद
भी मचाता है ; मां को मजबूर भी करता है । अगर उसे बाहर जाना है , तो बाहर जाना है । फिर वह सब नियम इत्यादि
तोड़ कर मां को परेशान करता है ।
छोटे बच्चे का जो संबंध मां से है , वही अवधूत का संबंध अस्तित्व से है । अस्तित्व यानी परमात्मा ।
इन सूत्रों को तभी समझ पाओगे , जब इस संबंध को खयाल
में ले लो । नहीं तो ये सूत्र थोड़े अजीब मालूम पड़ेंगे ।
थोड़े अशिष्ट भी मालूम पड़ सकते हैं । शिष्टाचार की यहां
कोई बात नहीं है।
शिष्टाचार - खयाल रखना - औपचारिक है ।
जिससे तुम्हारा शिष्टाचार का संबंध है , उनसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है । शिष्टाचार संबंध थोड़े ही है ।
शिष्टाचार तो , संबंध नहीं है - इस बात को छिपाने का
उपाय है ।
तो जब तक दो मित्रों के बीच शिष्टाचार चलता है ,
तुम जानना कि मित्रता अभी बनी नहीं । जब दो मित्रों के बीच शिष्टाचार खो जाता है , जब दो मित्र एक दूसरे को प्रेम में गाली
भी देने लगते हैं , तभी जानना कि मित्रता अब गहरी हुई ।
अब गाली भी मित्रता को उखाड़ न सकेगी ।
जब मित्र शिष्टाचार के सारे नियम तोड़ देते हैं , तो ही जानना कि हार्दिक रूप से करीब आये ।
अगर तुम भगवान के साथ शिष्टाचार का जीवन जी रहे हो ,
तो तुमने भगवान को जाना नहीं , पहचाना नहीं ।
उसके साथ तो नाता प्रेम का ही हो सकता है -
शिष्टता का नहीं ; सभ्यता का नहीं । उसके साथ तो नाता हार्दिक हो सकता है ।
ये सूत्र हृदय के सूत्र हैं ।
जैसे एक छोटा बच्चा अपनी मां से झगड़ रहा हो ,
ऐसे मलूकदास परमात्मा से झगड़ रहे हैं ।
ओशो
कन थोरे कांकर घने ( संत मलूकदास पर ओशो वाणी )
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