आचार्य विनोबा भावे
1.
आत्मदर्शन जीवन का काव्य है।
2.
हमारे-आपके-सबके जीवन का लक्ष्य इसी देह से, इन्हीं आंखों से ब्रह्मविद्या का अनुभव करना ही होना चाहिए।
3.
आत्मा का असली रूप और अभी का रूप, दोनों मिलकर पूर्ण आत्मचिंतन होता है। ये दो बिंदु निश्चित हुए कि परमार्थ-मार्ग तैयार हो जाता है।
4.
मां ! बालक के कानों में एक ही आवाज गूंजने दे -आत्मा ! आत्मा ! आत्मा !
5.
जीवन की शुद्धि, अंतर की स्फूर्ति, विराट् में आत्मदर्शन और आत्मा में विराट् की अनुभूति कर्मयोग के साथ-साथ हो सकती है। उसमें विकर्म जोड़ने पड़ते हैं।
6.
अहं का लोप हुआ कि समाधि लगती है। परंतु इससे मनुष्य का कार्य समाप्त हुआ, ऐसा नहीं। बल्कि, असली कार्य उसके बाद ही शुरू होता है। मुक्ति यानी व्यापक कार्य का प्रारंभ।
7
अपने भीतर महागुहा में प्रवेश करके चिंतन करने की आदत सबको होनी चाहिए। हमें अपने कार्य से, अपने अहम् से और अपनी प्रियतम भावना से भी थोड़ा अलग होना चाहिए।
8.
साधना का उत्साह प्रतिक्षण वर्धमान होते रहना ही जीवन है।
एक क्षण भी व्यर्थ न जाये, यह पारमार्थिक साधना में महत्त्व का सूत्र है।
9.
हम हमारी जिंदगी कितनी मान सकते हैं ? ज्यादा-से-ज्यादा 24 घंटे की मान सकते हैं। उससे ज्यादा मानना न केवल अज्ञान है, बल्कि पाप है।
10.
आज के दिन यदि हम अपना सब कुछ भगवान को सौंप दें तो कल से नहीं, इसी क्षण से हमारा सब कुछ सुधर जायेगा।
11.
जब मैं बहुत से लोगों को अपनी ही चिंता में डूबे देखता हूं तो मुझे दया आती है। जो खुद की ही चिंता का वहन करना चाहता है, उसकी चिंता भगवान क्यों करेगा ?
12.
संसार से दूर, मन की ऊंचाई-नीचाइयों से दूर, शरीर की आसक्तियों से दूर, तटस्थ भाव से देखेंगे, तभी ज्ञान की महान साधना करने में सफल हो सकेंगे।
13.
हरि आगे है, हरि पीछे है।
जहां हमारी शक्ति टूटेगी, वहीं वह प्रकट होगा।
14.
जिनको अपने चित्त के सूक्ष्म विकार खत्म करने की तीव्र भावना है, उनको भगवदाश्रय से बढ़कर दूसरा साधन नहीं।
15.
सूक्ष्मतर दोष ध्यान से, भगवत्प्रसाद से, शांति से, निर्भयता से, नम्रता से दूर होंगे।
16
सेवा करते हुए, मैं परिशुद्ध आत्मा हूं, इसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं, इस भूमिका का अभ्यास करते रहें। यही आत्मनिष्ठा है।
17.
प्रार्थना का रहस्य आत्मा की गहराई में लीन होने की कोशिश करने में है।
18.
मनुष्य का गुण अपने खुद के स्नेह से दुनिया को स्नेहमय बनाना है।
स्नेहवान मनुष्य को दुनिया में स्नेह के दर्शन होने लगते हैं, यह अनुभव है।
19.
हमारी प्रत्येक कृति छेनी बनकर हमारा जीवनरूपी पत्थर गढ़ती है। अतः छोटी-से-छोटी बातों में भी सजग रहना चाहिए।
20.
जैसे H₂ + 0 = पानी, यह समीकरण रसायनशास्त्र में आता है; वैसे ही मैंने जीवन का एक समीकरण बनाया है : त₂ + भ = जीवन । जीवन में त्याग दो मात्रा में हो, भोग एक मात्रा में। तब जीवन बनता है।
21.
मृत्यु का स्मरण हमारे हर एक कार्य में रहना आवश्यक है। ऐसा मनुष्य कभी किसी भी झमेले में नहीं फंसेगा।
22
अपने को जानना, यह सबसे बड़ी जानकारी है, जो मनुष्य के लिए जरूरी है।
23.
होगा वही, जो परमात्मा चाहेगा। हम तो उसके हाथ के औजार ही हो सकते हैं। औजार भी तभी बन सकते हैं, जब हम पूर्ण निरहंकार या शून्य बनेंगे।
24.
यह देखने की बात नहीं कि मुझे क्या मिलता है। इतना ही देखना होता है कि मैं क्या देता हूं। जो देता रहता है, उसके आनंद की सीमा नहीं।
25
सहजभाव से जितनी सेवा हो सकती है, उतनी करने के अलावा और किसी कर्तव्य की अपेक्षा भगवान ने हमसे नहीं की है।
26
निरंतर जाग्रत रहकर चित्त की शुद्धि जो करता रहेगा, उसके हाथ से सेवा उत्तम होगी।
27
जिसका देहभाव नष्ट हुआ और जिसने अपनी सब वासना भगवान को सौंप दी, उसके घर का काम भगवान खुद करते हैं।
28
भगवन् !
मुझे न भुक्ति चाहिए, न मुक्ति। मुझे भक्ति दे। मुझे न सिद्धि चाहिए, न समाधि। मुझे सेवा दे।
29.
हवा अपने-आप मेरे कमरे में आती है। सूर्य अपने-आप मेरे कमरे में प्रवेश करता है। ईश्वर भी उसी प्रकार अपने-आप मिलनेवाला है। बस, मेरा कमरा खुला भर रहने दो।
30
जीवन का स्वरूप है : सत्य-शोधनम् । मनुष्य का जीवन सत्य पर खड़ा होगा, तभी उसे आत्मा का दर्शन होगा।
31
हमारे मन में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। यह तो नहीं कह सकते कि कोई स्थूल कार्य उद्देश्य है।
जीवन का उद्देश्य तो परमात्म-दर्शन ही है।
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