6/21/2025

do not react to body

Do not compare yourself with anyone. 

Do not believe that fate has dealt you a bad card and that you're suffering mentally, or physically, or financially, or otherwise, and saying "Why did this happen to me?" You are not to blame. You're identifying with the world, with the body, with the mind. This is the only reason you believe you're suffering. No one really suffers. 

If you really understood who you were, you would never believe that anything was wrong with your life. To believe something is wrong with your life is blasphemy. That is the only blasphemy that exists. When you believe you're not in your right place. When you want to change. When you think somebody is doing something to you. When you have fears, that's blasphemy. For what you are saying is this thing called God does not exist. 

I use God synonymously with consciousness. 
You think God, consciousness, does not exist and that you have to struggle for yourself. You have to overcome burdens and you have to pay the price. Even the belief that it's karmic is wrong. The best thing you can do is not react to anything, but to act from your heart with love, compassion, peace, and let the chips fall where they may. 

As you begin not to react to conditions, you find that your thoughts become weaker and weaker. Your mind, which is merely a bundle of thoughts, wants you to react. The greater the reaction, the stronger the mind. And the stronger the mind, the greater the maya. You get pulled into the game. 

— Robert Adams, Talk 81: Absolute Nothingness

6/11/2025

Self emptiness no mind silence

There is really nothing you have to do, there is nothing you need,
there is no place you have to go, there is no special book you have to read, there is no special teacher you have to see, this is between you and yourself.

Robert Adams

Do not give your energy to this world. 

For the whole world is a cosmic joke.

It will suck your energy out, make you weak, 
make you start searching for remedies, 
solutions to your problems.

You will go through life after life doing these things.

The time is now, there is no other time but now. 

Now is the time to become totally free and liberated. 
Awaken, for you were never asleep! 

Awaken from the mortal dream. 

Let not another day go by where you react to people, places or things. 

Quit it! Stop it! 

Do not react to your own body, your own feelings. 
Quit it! Stop it! 

Understand who you really are. 

Stick with it!

Do not look for a time. 

Do not consider how long it takes, 
for most of you know by now there is no time. 

Time is a relative concept, it has no basis, no foundation. 

Look at yourself without time. 

Feel yourself without time.

This means there never was a time when you were a human. 

There never was a time when you were a sinner. 

There never was a time when you had a past. 

There never will be a time when there is a future. 

You are all there is right now! 

All there ever was, all there will ever be 
is right where you are right this minute.

You are that. 

It is you!

~Robert Adams 
✅  T199: Remove The Wall! - November 12, 1992

How do you become detached?

 By simply observing what's going on around you and not attaching yourself to it.

 By being awake to your reality.

 Understanding yourself that you are not the doer. 

Everything that you do has been preordained. It will be done. 

You have to let go mentally of all conditioning, of all objectivity. 

And you must still your mind.

 Make your mind placid, like a motionless lake.

 Then reality comes of its own accord.

 Happiness comes of its own accord. 

Peace comes of it own accord.

 Love comes of its own accord.

 Freedom comes of its own accord. 

These things are synonymous. 

They happen without you ever thinking about them. 

But first you must get rid of the notion, that I am the body, or mind, or the doer and then everything will happen by itself. 

~ Robert Adams

5/26/2025

hindi quotes 1.3


Quote 3 
1

जिसके अंदर अध्यात्म-विद्या है, उसे सारी दुनिया भी नहीं दबा सकती। अध्यात्म-विद्या से जबरदस्त क्रांति की जा सकती है।

2
जहां हम जड़-चेतन विश्व को ब्रह्मदृष्टि से देखते हैं, वहीं सृष्टि मंगलमय बनती है। तब जीवन की छोटी-छोटी चीजें भी छोटी नहीं रह जातीं।

3
हमारी सारी प्रवृत्तियां आत्मदर्शन के लिए हैं।

यह कब होगा, इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। मार्ग पर चलनेवाला चलने की चिंता करता है, मुकाम पर तो पहुंचेगा ही।

4

जब सर्वत्र गुणदर्शन होगा, तभी मानें कि आध्यात्मिक साधना सध गयी।

5

देह स्पष्ट ही अशाश्वत है। तथापि उसे संसार के तुच्छ सुख की प्राप्ति में न लगाकर ईश्वरभक्ति और सत्सेवा में लगाने से, उससे शाश्वत लाभ साधा जा सकता है।

6


वाणी में नम्रता, चित्त में दृढ़ता और बुद्धि में व्यापकता रखकर हम अपना काम करते चले जायें। हम निमित्त बनेंगे, कार्य भगवान की कृपा से होगा।


7




साथियों पर श्रद्धा न रखने का मतलब भगवान पर श्रद्धा का नहीं होना है। भगवान अनेक रूप लेकर हमारे पास पहुंचा है, हम उसके सेवक हैं।


8

प्रार्थना से जीवन-शुद्धि होती है। शुद्धि में स्वयं आनंद वास करता है और उसमें से शक्ति का निर्माण होता है।


9

हम पर सबका हक है, लेकिन हमारा ईश्वर के सिवा किसी पर हक नहीं। यह ध्यान में आ जाये तो मनुष्य निरंतर प्रसन्न रहेगा।

10


नामस्मरण यानी प्रत्येक कार्य का ईश्वर के साथ संबंध !
अपने कर्मों में जो न्यूनता रह जाती है, उसकी पूर्ति नामस्मरण से होती है।


11
हमारा काम स्वचित्त शोधन का है, दूसरे का चित्त जांचने का नहीं।

12


जिसका चित्त अधिक शुद्ध होता है, उसे अपना अल्प दोष भी बड़ा तकलीफ देता है

13

अखंड तत्त्व-संकीर्तन, सतत कर्मयोग, व्रतनिष्ठा, भक्ति और सबकी नम्रतापूर्वक वंदना -यह सब मिलकर ही ब्रह्मविद्या बनती है।

14


सोचो, किंतु 'निज' के संबंध में नहीं। या सबके संबंध में सोच सकते हैं या आत्मा का चिंतन कर सकते हैं। दोनों से 'निज' का विस्मरण होगा। वही तारक है।

15

यह सही है कि चंचल मन बहुत छलता है, लेकिन तू उससे भिन्न है।

तू निश्चल है, तुझे छलने की शक्ति सचमुच उस मन में नहीं है।

लेकिन यह ज्ञान भी भगवत्कृपा से होता है।

16

आत्मज्ञान के सिवा अन्य बातों में तुम्हारा ध्यान कम-से-कम खर्च हो।

17

भगवान मदद करने को हमेशा तैयार है लेकिन तीव्रता से उसकी मदद की याचना करनेवाले ही कहां हैं ?

18

राम को चाहनेवाले आराम की बात क्यों करेंगे ? राम ही तो आराम है।

19

मनुष्य को आत्मा का ज्ञान नहीं रहता, यही उसका भारी अज्ञान है। जो अपने को नहीं जानता, वह दूसरे को क्या जानेगा ?

20

ध्यान का पहला अंश है, अपने आचरण में होनेवाले दोषों का निरीक्षण । दूसरा है, दोष-निरसन का संकल्प और तीसरा है, उसके लिए परमेश्वर के मदद की अपेक्षा।

21

'मेरी मुक्ति' परस्पर विरुद्ध शब्द हैं। 'मैं का हटना' इसी का नाम मुक्ति है। जब तक 'मैं' है, तब तक मुक्ति नहीं।

22

चित्त की समता बाह्य व्यवहार में, चाहे वह लोकसेवा ही क्यों न हो, मशगूल रहने से ही प्राप्त नहीं होती। इसके लिए आंतरिक खोज की जरूरत रहती है।

23

उत्कट भक्ति और आत्मज्ञान के द्वारा कर्मबंधन जरूर कट सकता है।

24

'कोऽहम्' (मैं कौन हूं) के उत्तर पर कर्तव्य का निर्णय निर्भर है।


25

अपना हर काम उपासना-स्वरूप हो, यही ब्रह्मविद्या का आरंभिक विचार है।

26

सूक्ष्म अर्थ में भी राग-द्वेष नहीं चाहिए, तभी परमात्म-दर्शन होता है।

27

उचित संकल्प करनेवाले को ईश्वर का वरदहस्त हमेशा ही प्राप्त होता है।

28


सत्य, संयम एवं सेवा -यह पारमार्थिक जीवन की त्रिसूत्री है।

29
जीवन बिल्कुल सादा बनाओ। शरीर, मन, कपड़े, कमरा सब स्वच्छ । मुख पर हास्य रखो।

सदा परमपिता की याद करते रहो, हम सब उसके बालक हैं, वह खेल कर रहा है।

30
जिसमें आंतरिक समाधान नहीं, वह जीवन ही नहीं।

अंतः-समाधान का अर्थ है, निष्काम सेवा और भक्ति ।

31
वेद-वेदांत-गीतानां विनुना सार उद्धृतः ब्रह्म सत्यं जगत् स्फूर्तिः जीवनं सत्य-शोधनम् । वेद-वेदांत-गीता का विनोबा ने सार ग्रहण किया - ब्रह्म सत्य है, जगत् उसकी स्फूर्ति है और जीवन सत्य के शोध के लिए है।


























hindi quotes 1.2

Quotes 2

हर एक पुरुषार्थी साधक और सेवक को चाहिए कि वह आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए दृढ़ भावना से, पूर्ण हृदय उसमें उंडेलकर सतत प्रयत्न करता रहे।

2

ईश्वर मदद देता है तो उसका भान ही नहीं होता।
वह बिना हाथ के देगा, बिना आंख के देखेगा, बिना कान के सुनेगा।

3
परमेश्वर के चिंतन से
चित्त का चैतन्य हो जाता है। भक्तियोग में यह अनुभव आता है।

4

चित्त धोने के लिए उपयोगी -

मृत्तिका – तपस्या ।

जल - हरिप्रेम ।


5.


साधना की नहीं जाती, साधना होती है।
किया जाता है कर्मयोग, जिसमें भगवदार्पण भर दिया जाये तो वही होती है साधना ।


6


मनुष्य को भले संसार में रहना पड़े, वाणी में वह संसार न भरे। वाणी हरिनाम-स्मरण की ओर ही लगाये।

7

हम परमेश्वर से तन्मय होकर क्षणभर के लिए तो संसार को भुला दें !

8

योग यानी अपनी खुद की मुलाकात ! दुनिया में बहुतों की मुलाकात होती है, अपनी नहीं।

9
हम पर सबका हक है, लेकिन हमारा ईश्वर के सिवा किसी पर हक नहीं। यह ध्यान में आ जाये तो मनुष्य निरंतर प्रसन्न रहेगा।

10

चित्त-समाधान भगवत्कृपा की पहचान है। भगवान को हमारी सेवा मंजूर है, इसकी वह रसीद है।

11

भगवान में विश्वास, यानी दुनिया में विश्वास, यानी आत्मा में विश्वास, यानी सत्य में विश्वास ।

12

प्राप्त परिस्थिति चाहे जैसी हो, उसका भाग्य बना लेने की कला भक्त में होती है।

13

परमेश्वर जरा कसौटी करता है, ज्यादा नहीं करता।
जरा-सी कसौटी में मनुष्य टूट गया तो टूट ही गया। अगर उतने में न टूटा तो करुणामय की करुणा काम करने लगती है।

14
इस दुनिया का भार हम पर नहीं है। यह तो उस पर है, जिसकी यह लीला है। हम तो इर्द-गिर्द के वातावरण में जितनी सुगंध फैला सकें, उतनी फैलाने की चेष्टा करें।

15 

आत्मज्ञान प्राप्त करके मरें। राग-द्वेष खत्म होने के बाद कभी भी मरें। उसके पहले मरना शोकास्पद है।

16

हृदय में राम, मुख में नाम और हाथ में सेवा का काम -यही है आज की साधना ।

17

भक्ति और अहंता की कभी नहीं बनती। भक्ति में बिल्कुल कम-से-कम है अहंतामुक्ति ! जहां 'खुद' खतम हो जाता है, वहीं 'खुदा' प्रकट होता है।

18

विषय-वासना से मुक्ति का उपाय है : सत्संगति, निरंतर जाग्रत कर्मयोग और ईश्वरभक्ति

19
साधक हर वस्तु के बारे में आध्यात्मिक दृष्टि रखेगा। वह अपना परीक्षण करता रहेगा।

20

सत्-संकल्प करें, अवधि तय करें और काम में लगें।

21

दुनिया में क्या धरा है ? दो दिन रहना है। अधिक-से-अधिक प्रेम, सेवा और त्याग करना है।


22
प्रतिभा यानी बुद्धि को सतत नये-नये अंकुर फूटना।

नयी कल्पना, नया उत्साह, नयी खोज, जीवन की नयी दिशा -इसको कहेंगे प्रतिभा।

23

मेरी मान्यता है कि सब लोगों को और खासकर आध्यात्मिक साधना करनेवालों को तो सत्य को कभी छिपाना ही नहीं चाहिए। यही सर्वोत्तम साधना होगी।

24

निष्ठा की कसौटी तब होती है, जब अपने सिद्धांत पर चलते हुए खतरा दीखता है और तकलीफ होती है। जिसकी सत्य पर निष्ठा है, वह उसके लिए सब कुछ सहन करता है।

25


सोने में अनियमितता का अर्थ है समाधि का अनादर। सत्यशोधक को निद्रा के बारे में आग्रह रखना चाहिए।

26
जीवन की हर कृति में - खाने-पीने में, बोलने में, रहन-सहन में संयम की आवश्यकता है।

27

मनुष्य का मुख्य धर्म कौन-सा ?

- मनुष्यता ।

28

जो भी देखें, वहां भगवान को देखें; जो भी सुनें, वहां भगवान को सुनें। पहले इंद्रियां देना, फिर मन-बुद्धि आयेंगे। उत्तरोत्तर अंतर में जाते-जाते समर्पण करना।






















Hindi quotes 1.1

आचार्य विनोबा भावे 
1.
आत्मदर्शन जीवन का काव्य है।
2.
हमारे-आपके-सबके जीवन का लक्ष्य इसी देह से, इन्हीं आंखों से ब्रह्मविद्या का अनुभव करना ही होना चाहिए।

3.

आत्मा का असली रूप और अभी का रूप, दोनों मिलकर पूर्ण आत्मचिंतन होता है। ये दो बिंदु निश्चित हुए कि परमार्थ-मार्ग तैयार हो जाता है।

4.

मां ! बालक के कानों में एक ही आवाज गूंजने दे -आत्मा ! आत्मा ! आत्मा !

5.

जीवन की शुद्धि, अंतर की स्फूर्ति, विराट् में आत्मदर्शन और आत्मा में विराट् की अनुभूति कर्मयोग के साथ-साथ हो सकती है। उसमें विकर्म जोड़ने पड़ते हैं।

6.

अहं का लोप हुआ कि समाधि लगती है। परंतु इससे मनुष्य का कार्य समाप्त हुआ, ऐसा नहीं। बल्कि, असली कार्य उसके बाद ही शुरू होता है। मुक्ति यानी व्यापक कार्य का प्रारंभ।



अपने भीतर महागुहा में प्रवेश करके चिंतन करने की आदत सबको होनी चाहिए। हमें अपने कार्य से, अपने अहम् से और अपनी प्रियतम भावना से भी थोड़ा अलग होना चाहिए।

8.

साधना का उत्साह प्रतिक्षण वर्धमान होते रहना ही जीवन है।

एक क्षण भी व्यर्थ न जाये, यह पारमार्थिक साधना में महत्त्व का सूत्र है।

9.

हम हमारी जिंदगी कितनी मान सकते हैं ? ज्यादा-से-ज्यादा 24 घंटे की मान सकते हैं। उससे ज्यादा मानना न केवल अज्ञान है, बल्कि पाप है।

10.

आज के दिन यदि हम अपना सब कुछ भगवान को सौंप दें तो कल से नहीं, इसी क्षण से हमारा सब कुछ सुधर जायेगा।


11.

जब मैं बहुत से लोगों को अपनी ही चिंता में डूबे देखता हूं तो मुझे दया आती है। जो खुद की ही चिंता का वहन करना चाहता है, उसकी चिंता भगवान क्यों करेगा ?

12.

संसार से दूर, मन की ऊंचाई-नीचाइयों से दूर, शरीर की आसक्तियों से दूर, तटस्थ भाव से देखेंगे, तभी ज्ञान की महान साधना करने में सफल हो सकेंगे।


13.

हरि आगे है, हरि पीछे है।

जहां हमारी शक्ति टूटेगी, वहीं वह प्रकट होगा।

14.

जिनको अपने चित्त के सूक्ष्म विकार खत्म करने की तीव्र भावना है, उनको भगवदाश्रय से बढ़कर दूसरा साधन नहीं।


15.

सूक्ष्मतर दोष ध्यान से, भगवत्प्रसाद से, शांति से, निर्भयता से, नम्रता से दूर होंगे।


16

सेवा करते हुए, मैं परिशुद्ध आत्मा हूं, इसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं, इस भूमिका का अभ्यास करते रहें। यही आत्मनिष्ठा है।


17.

प्रार्थना का रहस्य आत्मा की गहराई में लीन होने की कोशिश करने में है।


18.

मनुष्य का गुण अपने खुद के स्नेह से दुनिया को स्नेहमय बनाना है।

स्नेहवान मनुष्य को दुनिया में स्नेह के दर्शन होने लगते हैं, यह अनुभव है।

19.

हमारी प्रत्येक कृति छेनी बनकर हमारा जीवनरूपी पत्थर गढ़ती है। अतः छोटी-से-छोटी बातों में भी सजग रहना चाहिए।

20.

जैसे H₂ + 0 = पानी, यह समीकरण रसायनशास्त्र में आता है; वैसे ही मैंने जीवन का एक समीकरण बनाया है : त₂ + भ = जीवन । जीवन में त्याग दो मात्रा में हो, भोग एक मात्रा में। तब जीवन बनता है।

21.

मृत्यु का स्मरण हमारे हर एक कार्य में रहना आवश्यक है। ऐसा मनुष्य कभी किसी भी झमेले में नहीं फंसेगा।


22 

अपने को जानना, यह सबसे बड़ी जानकारी है, जो मनुष्य के लिए जरूरी है।


23.

होगा वही, जो परमात्मा चाहेगा। हम तो उसके हाथ के औजार ही हो सकते हैं। औजार भी तभी बन सकते हैं, जब हम पूर्ण निरहंकार या शून्य बनेंगे।


24.


यह देखने की बात नहीं कि मुझे क्या मिलता है। इतना ही देखना होता है कि मैं क्या देता हूं। जो देता रहता है, उसके आनंद की सीमा नहीं।


25

सहजभाव से जितनी सेवा हो सकती है, उतनी करने के अलावा और किसी कर्तव्य की अपेक्षा भगवान ने हमसे नहीं की है।


26

निरंतर जाग्रत रहकर चित्त की शुद्धि जो करता रहेगा, उसके हाथ से सेवा उत्तम होगी।

27

जिसका देहभाव नष्ट हुआ और जिसने अपनी सब वासना भगवान को सौंप दी, उसके घर का काम भगवान खुद करते हैं।


28

भगवन् !

मुझे न भुक्ति चाहिए, न मुक्ति। मुझे भक्ति दे। मुझे न सिद्धि चाहिए, न समाधि। मुझे सेवा दे।

29.

हवा अपने-आप मेरे कमरे में आती है। सूर्य अपने-आप मेरे कमरे में प्रवेश करता है। ईश्वर भी उसी प्रकार अपने-आप मिलनेवाला है। बस, मेरा कमरा खुला भर रहने दो।


30

जीवन का स्वरूप है : सत्य-शोधनम् । मनुष्य का जीवन सत्य पर खड़ा होगा, तभी उसे आत्मा का दर्शन होगा।


31

हमारे मन में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। यह तो नहीं कह सकते कि कोई स्थूल कार्य उद्देश्य है।
जीवन का उद्देश्य तो परमात्म-दर्शन ही है।