3/27/2022

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**अति महत्त्वपूर्ण श्लोक** *कृपया पूरा श्लोक पढ़ें*
आज का श्लोक : श्रीमद्भगवद्गीत यथारूप १३.८-१२
अध्याय १३ :प्रकृति, पुरुष तथा चेतना 
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अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः || ८ ||
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इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च |
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् || ९ ||
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असक्तिरनभिष्वङगः पुत्रदारगृहादिषु |
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु || १० ||
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मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि || ११ ||
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अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा || १२ ||
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अमानित्वम् - विनम्रता; अदम्भित्वम् - दम्भविहीनता; अहिंसा - अहिंसा; क्षान्तिः - सहनशीलता, सहिष्णुता; आर्जवम् - सरलता; आचार्य-उपासनम् - प्रामाणिक गुरु के पास जाना; शौचम् - पवित्रता; स्थैर्यम् - दृढ़ता; आत्म-विनिग्रहः - आत्म-संयम; इन्द्रिय-अर्थेषु - इन्द्रियों के मामले में; वैराग्यम् - वैराग्य; अनहंकारः - मिथ्या अभिमान से रहित; एव - निश्चय ही; च - भी; जन्म - जन्म; मृत्यु - मृत्यु; जरा - बुढ़ापा;व्याधि - तथा रोग का; दुःख - दुख का; दोष - बुराई; अनुदर्शनम् - देखते हुए; सक्तिः - बिना आसक्ति के; अनभिष्वङगः - बिना संगति के ;पुत्र - पुत्र; दार - स्त्री; गृह-आदिषु - घर आदि में;नित्यम् - निरन्तर; च - भी; सम-चित्तत्वम् - समभाव;इष्ट - इच्छित; अनिष्ट - अवांछित, उपपत्तिषु - प्राप्त करके; मयि - मुझ में; च - भी; अनन्य-योगेन - अनन्य भक्ति से; भक्तिः - भक्ति; अव्यभिचारिणी - बिना व्यवधान के; विविक्त - एकान्त; देश - स्थानों की;सेवित्वम् - आकांक्षा करते हुए; अरतिः - अनासक्त भाव से; जन-संसदि - सामान्य लोगों को; अध्यात्म - आत्मा सम्बन्धी; ज्ञान - ज्ञान में; नित्यत्वम् - शाश्र्वतता; तत्त्वज्ञान - सत्य के ज्ञान के; अर्थ - हेतु; दर्शनम् - दर्शनशास्त्र; एतत् - यह सारा; ज्ञानम् - ज्ञान; इति - इस प्रकार; प्रोक्तम् - घोषित; अज्ञानम् - अज्ञान; यत् - जो; अतः - इससे; अन्यथा - अन्य, इतर |
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विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज - इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है |
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तात्पर्य: कभी-कभी अल्पज्ञ लोग ज्ञान की इस प्रक्रिया को कार्यक्षेत्र की अन्तः-क्रिया (विकार) के रूप में मानने की भूल करते हैं | लेकिन वास्तव में यही असली ज्ञान की प्रक्रिया है | यदि कोई इस प्रक्रिया को स्वीकार कर लेता है, तो परम सत्य तक पहुँचने की सम्भावना हो जाती है | यह इसके पूर्व बताये गये चौबीस तत्त्वों का विकार नहीं है | यह वास्तव में इन तत्त्वों के पाश से बाहर निकलने का साधन है | देहधारी आत्माचौबीस तत्त्वों से बने आवरण रूप शरीर में बन्द रहता है और यहाँ पर ज्ञान की जिस प्रक्रिया का वर्णन है वह इससे बाहर निकलने का साधन है | ज्ञान की प्रक्रिया के सम्पूर्ण वर्णन में से ग्यारहवें श्लोक की प्रथम पंक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है - मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी - 'ज्ञान की प्रक्रिया का अवसान भगवान् की अनन्य भक्ति में होता है |' अतएव यदि कोई भगवान् की दिव्य सेवा को नहीं प्राप्त कर पाता या प्राप्त करने में असमर्थ है, तो शेष उन्नीस बातें व्यर्थ हैं | लेकिन यदि कोई पूर्ण कृष्णभावना से भक्ति ग्रहण करता है, तो अन्य उन्नीस बातें उसके अन्दर स्वयमेव विकसित हो आती हैं | जैसा कि श्रीमद्भागवत में (५.१८.१२) कहा गया है - यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र सुराः | जिसने भक्ति की अवस्था प्राप्त कर ली है, उसमें ज्ञान के सारे गुण विकसित हो जाते हैं | जैसा कि आठवें श्लोक में उल्लेख हुआ है, गुरु-ग्रहण करने का सिद्धान्त अनिवार्य है | यहाँ तक कि जो भक्ति स्वीकार करते हैं, उनके लिए भी यह आवश्यक है | आध्यात्मिक जीवन का शुभारम्भ तभी होता है, जब प्रामाणिक गुरु ग्रहण किया जाय | भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि ज्ञान की यह प्रक्रिया ही वास्तविक मार्ग है | इससे परे जो भी विचार किया जाता है, व्यर्थ होता है |
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यहाँ पर ज्ञान की जो रूपरेखा प्रस्तुत की गई है उसका निम्नलिखित प्रकार से विश्लेषण किया जा सकता है | विनम्रता (अमानित्व) का अर्थ है कि मनुष्य को, अन्यों द्वारा सम्मान पाने के लिए इच्छुक नहीं रहना चाहिए | हम देहात्मबुद्धि के कारण अन्यों से सम्मान पाने के भूखे रहते हैं, लेकिन पूर्णज्ञान से युक्त व्यक्ति की दृष्टि में, जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है, इस शरीर से सम्बद्ध कोई भी वस्तु, सम्मान या अपमान व्यर्थ होता है | इस भौतिक छल के पीछे-पीछे दौड़ने से कोई लाभ नहीं है | लोग अपने धर्म में प्रसिद्धि चाहते हैं, अतएव यह देखा गया है कि कोई व्यक्ति धर्म के सिद्धान्तों को जाने बिना ही ऐसे समुदाय में सम्मिलित हो जाता है, जो वास्तव में धार्मिक सिद्धान्तों का पालन नहीं करता और इस तरह वह धार्मिक गुरु के रूप में अपना प्रचार करना चाहता है | जहाँ तक आध्यात्मिक ज्ञान में वास्तविक प्रगति की बात है, मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी परीक्षा करे कि वह कहाँ तक उन्नति कर रहा है | वह इन बातों के द्वारा अपनी परीक्षा कर सकता है |
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अहिंसा का सामान्य अर्थ वध न करना या शरीर को कष्ट न करना लिया जाता है, लेकिन अहिंसा का वास्तविक अर्थ है, अन्यों को विपत्ति में न डालना | देहात्मबुद्धि के कारण सामान्य लोग अज्ञान द्वारा ग्रस्त रहते हैं और निरन्तर भौतिक कष्ट भोगते रहते हैं | अतएव जब तक कोई लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ऊपर नहीं उठाता, तब तक वह हिंसा करता रहता होता है | व्यक्ति को लोगों में वास्तविक ज्ञान वितरित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए जिससे वे प्रबुद्ध हों और इस भवबन्धन से छूट सकें | यही अहिंसा है |
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सहिष्णुता (क्षान्तिः) का अर्थ है कि मनुष्य अन्यों द्वारा किये गये अपमान तथा निरस्कार को सहे | जो आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करने में लगा रहता है, उसे अन्यों के निरस्कार तथा अपमान सहने पड़ते हैं | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह भौतिक स्वभाव है | यहाँ तक कि बालक प्रह्लाद को भी जो पाँच वर्ष के थे और जो आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे थे संकट का सामना करना पड़ा था, जब उनका पिता उनकी भक्ति का विरोधी बन गया | उनके पिता ने उन्हें मारने के अनेक प्रयत्न किए, किन्तु प्रह्लाद ने सहन कर लिया | अतएव आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं, लेकिन हमें सहिष्णु बन कर संकल्पपूर्वक प्रगति करते रहना चाहिए |
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सरलता (आर्जवम्) का अर्थ है कि बिना किसी कूटनीति के मनुष्य इतना सरल हो कि अपने शत्रु तक से वास्तविक सत्य का उद्घाटन कर सके | जहाँ तक गुरु बनाने का प्रश्न है, (आचार्योपासनम्), आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करने के लिए यह अत्यावश्यक है, क्योंकि बिना प्रामाणिक गुरु के यह सम्भव नहीं है | मनुष्य को चाहिए कि विनम्रतापूर्वक गुरु के पास जाए और उसे अपनी समस्त सेवाएँ अर्पित करे, जिससे वह शिष्य को अपना आशीर्वाद दे सके | चूँकि प्रामाणिक गुरु कृष्ण का प्रतिनिधि होता है,अतएव यदि वह शिष्य को आशीर्वाद देता है, तो शिष्य तुरन्त प्रगति करने लगता है, भले ही वह विधि-विधानों का पालन न करता रहा हो | अत्वे जो बिना किसी स्वार्थ के अपने गुरु की सेवा करता है, उसके लिए यम-नियम सरल बन जाते हैं |
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आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए पवित्रता (शौचम्) अनिवार्य है | पवित्रता दो प्रकार की होती है - आन्तरिक तथा बाह्य | बाह्य पवित्रता का अर्थ है स्नान करना, लेकिन आन्तरिक पवित्रता के लिए निरन्तर कृष्ण का चिन्तन तथा हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करना होता है | इस विधि से मन में से पूर्व कर्म की संचित धूलि हट जाती है |
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दृढ़ता (स्थैर्यम्) का अर्थ है कि आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए मनुष्य दृढ़संकल्प हो | ऐसे संकल्प के बिना मनुष्य ठोस प्रगति नहीं कर सकता | आत्मसंयम (आत्म-विनिग्रहः) का अर्थ है कि आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर जो भी बाधक हो, उसे स्वीकार न करना | मनुष्य को इसकाअभ्यस्त बन कर ऐसी किसी भीवस्तु को त्याग देना चाहिए, जो आध्यात्मिक उन्नति के पथ के प्रतिकूल जो | यह असली वैराग्य है | इन्द्रियाँ इतनी प्रबल हैं कि सदैव इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक रहती हैं | अनावश्यक माँगों की पूर्ति नहीं करनी चाहिए | इन्द्रियों की उतनी ही तृप्ति की जानी चाहिए, जिससे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने में अपने कर्त्तव्य की पूर्ति होती हो | सबसे महत्त्वपूर्ण, किन्तु वश में न आने वाली इन्द्रिय जीभ है | यदि जीभ पर संयम कर लिया गया तो समझो अन्य सारी इन्द्रियाँ वशीभूत हो गई | जीभ का कार्य है, स्वाद ग्रहण करना तथा उच्चारण करना | अतएव नियमित रूप से जीभ को कृष्णार्पित भोग के उच्छिष्ट का स्वाद लेने में तथा हरे कृष्ण का कीर्तन करने में प्रयुक्त करना चाहिए | जहाँ तक नेत्रों का सम्बन्ध है, उन्हें कृष्ण के सुन्दर रूप के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं देखने देना चाहिए | इससे नेत्र वश में होंगे | इसी प्रकार कानों को कृष्ण के विषय में श्रवण करने में लगाना चाहिए, और नाक को कृष्णार्पित फूलों को सूँघने में लगाना चाहिए | यह भक्ति की विधि है, और यहाँ यह समझना होगा कि भगवद्गीता केवल भक्ति के विज्ञान का प्रतिपादन करती है | भक्ति ही प्रमुख एवं एकमात्र लक्ष्य है | भगवद्गीता के बुद्धिहीन भाष्यकार पाठक के ध्यान को अन्य विषयों की ओर मोड़ना चाहते हैं, लेकिन भगवद्गीता में भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विषय नहीं है |
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मिथ्या अहंकार का अर्थ है, इस शरीर को आत्मा मानना | जब कोई यह जान जाता है कि वह शरीर नहीं, अपितु आत्मा है तो वह वास्तविक अहंकार को प्राप्त होता है | अहंकार तो रहता ही है | मिथ्या अहंकार की भर्त्सना की जाती है , वास्तविक अहंकार की नहीं | वैदिक साहित्य में (बृहदारण्यक उपनिषद् १.४.१०) कहा गया है - अहं ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हूँ, मैं आत्मा हूँ | 'मैं हूँ' ही आत्म भाव है, और यह आत्म-साक्षात्कार की मुक्त अवस्था में भी पाया जाता है | 'मैं हूँ' का भाव ही अहंकार है लेकिन जब 'मैं हूँ' भाव को मिथ्या शरीर के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो वह मिथ्या अहंकार होता है | जब इस आत्म भाव (स्वरूप) को वास्तविकता के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो वह वास्तविक अहंकार होता है | ऐसे कुछ दार्शनिक हैं, जो यह कह सकते है कि हमें अपना अहंकार त्यागना चाहिए | लेकिन हम अपने अहंकार को त्यागे कैसे? क्योंकि अहंकार का अर्थ है स्वरूप | लेकिन हमें मिथ्या देहात्मबुद्धि का त्याग करना ही होगा |
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जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि को स्वीकार करने के कष्ट को समझना चाहिए | वैदिक ग्रन्थों में जन्म के अनेक वृत्तान्त हैं | श्रीमद्भागवत में जन्म से पूर्व की स्थिति, माता के गर्भ में बालक के निवास, उसके कष्ट आदि का सजीव वर्णन हुआ है | यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि जन्म बहुत कष्टपूर्ण है | चूँकि हम भूल जाते हैं कि माता के गर्भ में हमें कितना कष्ट मिला है, अतएव हम जन्म तथा मृत्यु की पुनरावृत्ति का कोई हल नहीं निकाल पाते | इसी प्रकार मृत्यु के समय भी सभी प्रकार के कष्ट मिलते हैं, जिनका उल्लेख प्रामाणिक शास्त्रों में हुआ है | इनकी विवेचना की जानी चाहिए | जहाँ तक रोग तथा वृद्धावस्था का प्रश्न है, सबों को इनका व्यावहारिक अनुभव है | कोई भी रोगग्रस्त नहीं होना चाहता, कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता, लेकिन इनसे बचा नहीं का सकता | जब तक जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के दुखों को देखते हुए इस भौतिक जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण नहीं बना पाते, तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता |
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जहाँ तक संतान, पत्नी तथा घर से विरक्ति की बात है, इसका अर्थ यह नहीं कि इनके लिए कोई भावना ही न हो | ये सब स्नेह की प्राकृतिक वस्तुएँ हैं | लेकिन जब ये आध्यात्मिक उन्नति में अनुकूल न हों , तो इनके प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए | घर को सुखमय बनाने की सर्वोत्तम विधि कृष्णभावनामृत है | यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूर्ण रहे, तो वह अपने घर को अत्यन्त सुखमय बना सकता है, क्योंकि कृष्णभावनामृत की विधि अत्यन्त सरल है | इसमें केवल हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण , हरे हरे | हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे - का कीर्तन करना होता है , कृष्णार्पित भोग का उच्छिष्ट ग्रहण करना होता है, भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रन्थों पर विचार-विमर्श करना होता है, और अर्चाविग्रह की पूजा करनी होती है | इन चारों बातों से मनुष्य सुखी होगा | मनुष्य को चाहिए कि अपने परिवार के सदस्यों को ऐसी शिक्षा दे | परिवार के सदस्य प्रतिदिन प्रातः तथा सांयकाल बैठ कर साथ-साथ हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करें | यदि कोई इन चारों सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपने पारिवारिक जीवन को कृष्णभावनामृत विकसित करने में ढाल सके, तो पारिवारिक जीवन को त्याग कर विरक्त जीवन बिताने की आवश्यकता नहीं होगी | लेकिन यदि यह आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनुकूल न रहे, तो पारिवारिक जीवन का परित्याग कर देना चाहिए | मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साक्षात्कार करने या उनकी सेवा करने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दे, जिस प्रकार से अर्जुन ने किया था | अर्जुन अपने परिजनों को मारना नहीं चाह रहा था, किन्तु जब वह समझ गया कि ये परिजन कृष्णसाक्षात्कार में बाधक हो रहें हैं, तो उसने कृष्ण के आदेश को स्वीकार किया | वह उनसे लड़ा और उसने उनको मार डाला | इन सब विषयों में मनुष्य को पारिवारिक जीवन के सुख-दुख से विरक्त रहना चाहिए, क्योंकि इस संसार में कोई भी न तो पूर्ण सुखी रह सकता है, न दुखी |
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सुख-दुख भौतिक जीवन को दूषित करने वाले हैं | मनुष्य को चाहिए कि इन्हें सहना सीखे, जैसा कि भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है | कोई कभी भी सुख-दुख के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता, अतः मनुष्य को चाहिए कि भौतिकवादी जीवन-शैली से अपने को विलग कर ले और दोनों ही दशाओं में समभाव बनाये रहे | सामन्यतया जब हमें इच्छित वस्तु मिल जाती है, तो हम अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब अनिच्छित घटना घटती है, तो हम दुखी होते हैं | लेकिन यदि हम वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त हों, तो ये बातें हमें विचलित नहीं कर पाएँगी | इस स्थिति तक पहुँचने के लिए हमें अटूट भक्ति का अभ्यास करना होता है | विपथ हुए बिना कृष्णभक्ति का अर्थ होता है भक्ति की नव विधियों - कीर्तन, श्रवण, पूजन आदि में प्रवृत्त होना, जैसा नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में वर्णन हुआ है | इस विधि का अनुसरण करना चाहिए |
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यह स्वाभाविक है कि आध्यात्मिक जीवन-शैली का अभ्यस्त हो जाने पर मनुष्य भौतिकवादी लोगों से मिलना नहीं चाहेगा | इससे उसे हानि पहुँच सकती है | मनुष्य को चाहिए कि वह यह परीक्षा करके देख ले कि वह अवांछित संगति के बिना एकान्तवास करने में कहाँ तक सक्षम है | यह स्वाभाविक ही है कि भक्त में व्यर्थ के खेलकूद या सिनेमा जाने या किसी सामाजिक उत्सव में सम्मिलित होने की कोई रूचि नहीं होती, क्योंकि वह यह जानता है कि यह समय को व्यर्थ गवाँना है | कुछ शोध-छात्र तथा दार्शनिक ऐसे हैं जो कामवासनापूर्ण जीवन या अन्य विषय का अध्ययन करते हैं, लेकिन भगवद्गीता के अनुसार ऐसा शोध कार्य और दार्शनिक चिन्तन निरर्थक है | यह एक प्रकार से व्यर्थ होता है | भगवद्गीता के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि अपने दार्शनिक विवेक से वह आत्मा की प्रकृति के विषय में शोध करे | उसे चाहिए कि वह अपने आत्मा को समझने के लिए शोध करे | यहाँ पर इसी की संस्तुति की गई है |
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जहाँ तक आत्म-साक्षात्कार का सम्बन्ध है, यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भक्तियोग ही व्यावहारिक है | ज्योंही भक्ति की बात उठे, तो मनुष्य को चाहिए कि परमात्मा तथा आत्मा के सम्बन्ध पर विचार करे | आत्मा तथा परमात्मा कभी एक नहीं हो सकते, विशेषतया भक्तियोग में तो कभी नहीं | परमात्मा के प्रति आत्मा की यह सेवा नित्य है, जैसा कि स्पष्ट किया गया है | अतएव भक्ति शाश्र्वत (नित्य) है | मनुष्य को इसी दार्शनिक धारणा में स्थित होना चाहिए |
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श्रीमद्भागवत में (१.२.११) व्याख्या की गई है - वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् - जो परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता हैं, वे जानते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपों में किया जाता है - ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् | परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान् पराकाष्ठा होते हैं, अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान् को समझने के पद तक पहुँचे और भगवान् की भक्ति में लग जाय | यही ज्ञान की पूर्णता है |
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विनम्रता से लेकर भगवत्साक्षात्कार तक की विधि भूमि से चल कर उपरी मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढ़ी के समान है | इस सीढ़ी में कुछ ऐसे लोग हैं, जो अभी पहली सीढ़ी पर हैं, कुछ दूसरी पर, तो कुछ तीसरी पर | किन्तु जन तक मनुष्य उपरी मंजिल पर नहीं पहुँच जाता, जो कि कृष्ण का ज्ञान है, तक तक वह ज्ञान की निम्नतर अवस्था में ही रहता है | यदि कोई ईश्र्वर की बराबरी करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है, तो उसका प्रयास विफल होगा | यह स्पष्ट कहा गया है कि विनम्रता के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है | अपने को ईश्र्वर समझना सर्वाधिक गर्व है | यद्यपि जीव सदैव प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा ठुकराया जाता है, फिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है कि 'मैं ईश्र्वर हूँ|' ज्ञान का शुभारम्भ 'अमानित्व' या विनम्रता से होता है | मनुष्य को विनम्र होना चाहिए | परमेश्र्वर के प्रति विद्रोह के कारण ही मनुष्य प्रकृति के अधीन हो जाता है | मनुष्य को इस सच्चाई को जानना और इससे विश्र्वस्त होना चाहिए |
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प्रश्न १ : अहिंसा का असली अर्थ क्या है ? इस श्लोक में क्षान्तिः तथा  आचार्योपासनम् शब्दों का क्या महत्त्व है ? 
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प्रश्न २ : मनुष्य किस प्रकार अपने पारिवारिक जीवन को सुखी बना सकता है ? इसमें कौन-सी चार बातों  का उल्लेख किया गया है ?
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प्रश्न ३ : वास्तविक अहंकार किसे कहते हैं ? ज्ञान की पूर्णता किस विधि का पालन करने से प्राप्त हो सकती है ? मनुष्य किस प्रकार प्रकृति के अधीन हो जाता है ?



3/21/2022

post 8

सहज स्वीकार ही जीवन जीने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है। सहज स्वीकार , यानि परमात्मा का स्वीकार , परमात्मा यानि जीवन , जीवन का स्वीकार , जैसा भी है, वैसा ही। जीवन के स्वीकार में ही आनन्द है, जीवन का विरोध यानि विषाद, महादुख, नर्क ।

post 7

The Real Thing that Matters Is Love
 
“As I see it, out of a hundred marriages ninety-nine marriages are just licensed prostitution. They are not marriages. A marriage is only a real marriage when it grows out of love. Legal, illegal, does not matter. The real thing that matters is love.
 
“If love exists between two persons, it is blessed. If love does not exist between two persons, then all your laws put together cannot bridge them. Then they exist separate, then they exist apart, then they exist in conflict, then they exist always in war. And they create all kinds of trouble for each other. They are nasty to each other, nagging to each other, possessive of each other, violent, oppressive, dominating, dictatorial.”
 
Osho, Zen: The Path of Paradox, Vol. 2, Talk #8

post 6

You can never "Just be friends" with someone you fell in love with !
#unknown

posts 5

#ओशो

अस्तित्व के सभी आयाम स्त्रैण और पुरुष में बांटे जा सकते हैं। स्त्री और पुरुष का विभाजन केवल यौन-विभाजन, सेक्स डिवीजन नहीं है। लाओत्से के हिसाब से स्त्री और पुरुष का विभाजन जीवन की डाइलेक्टिक्स है, जीवन का जो द्वंद्वात्मक विकास है, जो डाइलेक्टिकल एवोल्यूशन है, उसका अनिवार्य हिस्सा है।

शरीर के तल पर ही नहीं, स्त्री और पुरुष मन के तल पर भी भिन्न हैं। अस्तित्व जिन-जिन अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है, वहां-वहां स्त्री और पुरुष का भेद होगा। लेकिन जो बात ध्यान रखने जैसी है लाओत्से को समझते समय, वह यह है कि पुरुष अस्तित्व का क्षणिक रूप है और स्त्री अस्तित्व का शाश्वत रूप है। जैसे सागर में लहर उठती है। लहर का उठना क्षणिक है। लहर नहीं थी, तब भी सागर था; और लहर नहीं होगी, तब भी सागर होगा। स्त्रैणता अस्तित्व का सागर है। पुरुष का अस्तित्व क्षणिक है।मन के संबंध में भी, जैसे शरीर के संबंध में स्त्री और पुरुष के बुनियादी भेद हैं, वैसे ही मन के संबंध में भी हैं। पुरुष के चिंतन का ढंग तर्क है। इसे ठीक से समझ लेना जरूरी होगा, क्योंकि लाओत्से के सारे विचार का आधार इस पर है। पुरुष के सोचने का ढंग तर्क है, उसका मेथड तर्क है। स्त्री के सोचने का ढंग तर्क नहीं है। उसके सोचने का ढंग बहुत इल्लॉजिकल है, बहुत अतार्किक है। उसे हम अंतर्दृष्टि कहें, इंटयूशन कहें, कोई और नाम दें, लेकिन स्त्री के सोचने के ढंग को तर्क नहीं कहा जा सकता। तर्क की अपनी व्यवस्था है। इसलिए जहां भी पुरुष सोचेगा, वहां गणित, तर्क और नियम होगा। और जहां भी स्त्री सोचेगी, वहां न गणित होगा, न तर्क होगा; सीधे निष्कर्ष होंगे, कनक्लूजंस होंगे। इसलिए स्त्री और पुरुष के बीच बातचीत नहीं हो पाती।।

#ताओ_उपनिषद(भाग-१)#प्रवचन_19


post 4

"When you are ready, the whole universe begins to help you. There is no need to ask for any astral help, there is no need to go anywhere, help is always being given - a need is always fulfilled. But one has to be ready, one has to be in a state of mind where universal forces can help you. So it is not a positive search, because you cannot seek astral help; help depends on your receptivity, your readiness.

Higher forces are present everywhere, every moment. This very moment you are surrounded by both higher forces and lower forces, but you are receptive only to the lower.

You can either be open to higher forces or you can be open to lower forces; you cannot be open to both. The very mechanism of consciousness is such that if you are open to the lower you will be closed to the higher, and if you are open to the higher you will automatically become closed to the lower. We have only one opening, so it is your choice in which direction to move.

The first thing to be understood is how to be closed to lower forces and how to be open to higher forces. Higher forces are always there, but they cannot work unless you cooperate with them, unless you give yourself to them. The moment you are open to them the work begins - when the doors are open, the sun can come in. Your doors are closed. The sun is there, this very moment it is knocking on the door, but you are in darkness. You will remain in darkness not because the sun is not there but because your doors are closed. You have not invited the sun, you are not receptive to it. You are still not prepared to be a host - the invitation has not been sent.

How can one become closed to the lower forces and open to the higher forces? We are not even aware that we are open to the lower forces and yet we are in search of higher forces that can work on us....

For example, when someone loves you, you are always suspicious, always doubtful of it. Is the love true or not? Are you really loved or not? Is the person being authentic or deceptive? When someone is angry you never doubt whether he is really angry or just being deceptive, whether he is playing a role or is authentic. There is no doubt. It is always taken for granted that anger is authentic, but love is never taken for granted. You always believe the lower; you have a deep-rooted faith in the lower.

Remember, faith is the opening. Faith means trust, and whatever you believe in, you are open to.

An untrusting mind is closed because it is afraid. But unless you trust you will remain closed." ~ 

#Osho - Book: The Great Challenge, Talk 11

post 3

 WHEN PEOPLE GIVE IMPORTANCE TO YOU, watch how the ego arises, how it starts taking possession of you.

They are giving you an opportunity, use it as a meditation device. Sometimes they will not give you importance,they may even insult you; so then too, watch it how your ego feels hurt.

The feeling of being hurt or the feeling of being fulfilled in the ego is the same, it is the
same wound! The only thing that is needed is to be watchful, to be alert about it. The more watchful you are, the less ego there will be. And when the alertness is almost like a light inside you, then whether people insult you or praise you makes no difference.In being watchful the ego becomes ridiculous.

OSHO🌀

3/20/2022

post 2

जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उससे तुम घृणा क्यों करते हो? प्रेम एक जरूरत है, और प्रेम की ही भांति एक दूसरी भी जरूरत है, वह है स्वतंत्रता। जिस क्षण तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम उस पर निर्भर महसूस करने लगते हो, तुम्हारी स्वतंत्रता खो गई। और जो र्व्याक्ते तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा है उसे तुम घृणा करोगे ही। और जो व्यक्ति तुम्हें निर्भर बना रहा है वह तुम्हें दुश्मन ही नहीं मालूम पड़ेगा बल्कि कट्टर दुश्मन मालूम पड़ेगा, क्योंकि वह तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी आजादी, तुम्हारी निजता को नष्ट कर रहा है। लेकिन प्रेम एक जरूरत है, इसलिए तुम स्वतंत्रता की कीमत पर प्रेम को पूरा करते हो; इसीलिए तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो और तुम उसी से घृणा भी करते हो।

फिर दूसरी समस्या सामने आती है जिस क्षण तुम किसी के प्रेम में होते हो, तुम अपने होश में नहीं रहते। तुम पागल हो जाते हो। सचमुच तुम पागल हो जाते हो। तुम सजग नहीं रहते, तुम होश में नहीं रहते। तुम ऐसे चल रहे होते हो जैसे नींद में। और यदि दूसरा आदमी भी तुम्हारी ही तरह है—और मनोचिकित्सक वैसा ही है, कोई भी भेद नहीं है, उसकी चेतना तुम्हारी चेतना से ऊंची नहीं है—तब वह भी नींद में चल रहा है। नींद में चल रहे दो आदमी टकरायेंगे ही। वे द्वंद्व में पड़ेंगे, संघर्ष में पड़ें
जबकि स्व बोध व्यक्ति के तुम प्रेम में पड़ो वह ऐसी स्थिरता का व्यक्ति होता है
 कि तुम उसे नीचे न खींच सको, चाहे तुम कुछ भी करो
धीरे— धीरे उनके निकट रहते—रहते, कामुकता गिर जायेगी और प्रेम शुद्ध होगा—आत्मिक हो जायेगा

केनोउपनिषद-

ओशो

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 “प्रेम दगाबाज़ है ! ” – ओशो

तुम एक प्रेम में पड़ गए। तुमने एक स्त्री को चाहा, एक पुरुष को चाहा, खूब चाहा। जब भी तुम किसी को चाहते हो, तुम चाहते हो तुम्हारी चाह शाश्वत हो जाए। जिसे तुमने प्रेम किया वह प्रेम शाश्वत हो जाए। यह हो नहीं सकता। यह वस्तुओं का स्वभाव नहीं। तुम भटकोगे। तुम रोओगे। तुम तड़पोगे। तुमने अपने विषाद के बीज बो लिए। तुमने अपनी आकांक्षा में ही अपने जीवन में जहर डाल लिया।

यह टिकने वाला नहीं है। कुछ भी नहीं टिकता यहां। यहां सब बह जाता है। आया और गया। अब तुमने यह जो आकांक्षा की है कि शाश्वत हो जाए, सदा—सदा के लिए हो जाए; यह प्रेम जो हुआ, कभी न टूटे, अटूट हो; यह श्रृंखला बनी ही रहे, यह धार कभी क्षीण न हो, यह सरिता बहती ही रहे—बस, अब तुम अड़चन में पड़े। आकांक्षा शाश्वत की और प्रेम क्षणभंगुर का; अब बेचैनी होगी, अब संताप होगा। या तो प्रेम मर जाएगा या प्रेमी मरेगा। कुछ न कुछ होगा। कुछ न कुछ विध्‍न पड़ेगा। कुछ न कुछ बाधा आएगी।

ऐसा ही समझो, हवा का एक झोंका आया और तुमने कहा, सदा आता रहे। तुम्हारी आकांक्षा से तो हवा के झोंके नहीं चलते। वसंत में फूल खिले तो तुमने कहा सदा खिलते रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो फूल नहीं खिलते। आकाश में तारे थे, तुमने कहा दिन में भी रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो तारे नहीं संचालित होते। जब दिन में तारे न पाओगे, दुखी हो जाओगे। जब पतझड़ में पत्ते गिरने लगेंगे, और फूलों का कहीं पता न रहेगा, और वृक्ष नग्न खड़े होंगे दिगंबर, तब तुम रोओगे, तब तुम पछताओगे। तब तुम कहोगे, कुछ धोखा दिया, किसी ने धोखा दिया।

किसी ने धोखा नहीं दिया है। जिस दिन तुम्हारा और तुम्हारी प्रेयसी के बीच प्रेम चुक जाएगा, उस दिन तुम यह मत सोचना कि प्रेयसी ने धोखा दिया है; यह मत सोचना कि प्रेमी दगाबाज निकला। नहीं, प्रेम दगाबाज है। न तो प्रेयसी दगाबाज है, न प्रेमी दगाबाज है—प्रेम दगाबाज है।

जिसे तुमने प्रेम जाना था वह क्षणभंगुर था, पानी का बबूला था। अभी—अभी बड़ा होता दिखता था। पानी के बबूले पर पड़ती सूरज की किरणें इंद्रधनुष का जाल बुनती थीं। कैसा रंगीन था! कैसा सतरंगा था! कैसे काव्य की स्फुरणा हो रही थी! और अभी गया। गया तो सब गए इंद्रधनुष! गया तो सब गए सुतरंग। गया तो गया सब काव्य! कुछ भी न बचा।

क्षणभंगुर से हमारा जो संबंध हम बना लेते हैं और शाश्वत की आकांक्षा करने लगते हैं उससे दुख पैदा होता है। शाश्वत जरूर कुछ है; नहीं है, ऐसा नहीं। शाश्वत है। तुम्हारा होना शाश्वत है। अस्तित्व शाश्वत है। आकांक्षा कोई भी शाश्वत नहीं है। दृश्य कोई भी शाश्वत नहीं है। लेकिन द्रष्टा शाश्वत है।

– ओशो
[अष्‍टावक्र महागीता]

3/03/2022

feelings

Feelings are just visitors.
Let them come and go.
~Mooji

quotes

जय श्रीराम

शंख सुदर्शन गदा पदम, शोभा देते हाथ।
कृपा करें हम सब पर, हे नाथो के नाथ॥
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