विरह क्या है?
भक्ति के मार्ग पर विरह आधी यात्रा है, और मिलन शेष आधी। दो ही कदम हैं भक्ति कें—विरह और मिलन। पहले विरह, फिर मिलन। जो विरही है, वही मिलेगा। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं परमात्मा कहां है, कहा छिपा है। विरह का अर्थ है कि मुझे मेरे जीवन का अर्थ नहीं मिलता। विरह का अर्थ है, आंसू और आंसू मेरी आत्मा पर फैले हैं, मैं रो रहा हूं? मैं पुकार रहा हूं; राह नहीं सूझती, अंधेरा है, मैं टटोल रहा हूं; मैं भटक रहा हूं; मैं गिर रहा हूं; मैं उठ रहा हूं। विरह प्यास है। विरह अभीप्सा है। कुछ है जो प्रकट नहीं हो रहा है, और जो प्रकट हो जाए तो जीवन का अर्थ मिल जाए, जीवन में संगति आ जाए। संगीत आ जाए। कुछ है जो अनुभव में आता है भीतर कि पास ही है, फिर भी चूक—चूक जाता है। कुछ है जिसकी अचेतन में ध्वनि सुनाई पड़ती है, लेकिन चेतन तक नहीं आ पाती।
विरह का अर्थ है, परमात्मा है और मुझे नहीं मिल पा रहा है। तो मैं रोऊं, तो मैं पुकारूं, तो मैं गिरूं उसके अतात चरणों में, तो मैं उस अज्ञात के लिए दीए जलाऊ, आरती सजाऊं, फूलमालाएं गूथूं; मैं खाली हूं और मेहमान आ नहीं रहा है—मेहमान है निश्चित, इसकी प्रतीति होनी शुरू होती है भक्त को कि परमात्मा है निश्चित, हर तरफ उसकी छाया सरकती मालूम पड़ती है, फूलों मे उसका रूप दिखाई पड़ता है, पक्षियों में उसकी उड़ान मालूम होती है, झरनों में उसका कलकल नाद मालूम होता है, अस्पष्ट सी अनुभूति होती है, पगध्वनि सुनाई पड़ती है कभी—कभी किन्हीं क्षणों में और किसी—किसी झरोखे से वह झांक जाता है, किसी सपने में उसकी छाया पड़ती है, प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है—दूर की—एहसास होने लगता है कि है तो जरूर, लेकिन कब छाती से छाती मिले, कब आलिंगन हो!
विरह का अर्थ है, ऐसी चित्त की दशा जिसे एहसास तो होना शुरू हुआ, लेकिन एहसास अभी अनुभूति नहीं बना है। जिसे परमात्मा की प्रतीति अनुभव में तो आने लगी, लेकिन आमना—सामना नहीं हुआ, दरस—परस नहीं हुआ है। ध्वनि सुनी है कहीं से, लेकिन कहा से आती है, स्रोत नहीं मिल रहा है। ध्वनि सुनकर ही भक्त मस्त हो गया है। जैसे मदारी ने अपनी तुरही बजाई हो और सांप अपनी पोल में छिपा हुआ तड़फने लगे, ऐसा विरह है। सरकने लगे ध्वनि के स्रोत की तरफ, मस्त होने लगे, मदमस्त होने लगे।
इस विरह को शांडिल्य ने कहा—बड़ा उपयोगी है। जब दो विरही मिल जाते हैं, रोते हैं और एक—दूसरे को रुलाते हैं और प्रभु की महिमा बखान करते हैं, प्रभु की उपस्थिति की चर्चा करते है, प्रभु की झलकें एक—दूसरे से आदान—प्रदान करते हैं, तब सत्संग होता है। उसी सत्संग में धीरे— धीरे अनुभव निखरते हैं, साफ होते हैं। सोना विरह की अग्नि से गुजर—गुजरकर खालिस कुंदन बनता है। और एक दफा मजा आने लगता है आसुओ का—क्योकि ये आंसू परमात्मा के लिए हैं, ये दुख के आंसू नहीं हैं, ये बड़े अहोभाव के आंसू है; इतना भी क्या कम है कि हमें उसका एहसास होने लगा, हम धन्यभागी हैं कि हमें उसका एहसास होने लगा, अभागे है बहुत जिन्हें यह पता ही नहीं है कि परमात्मा जैसी कोई बात होती है, जिन्होंने कभी इस शब्द पर दो क्षण विचार नहीं किया है, जिन्हें प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं मालूम।
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
आओ फिर कोई नज्म कहें
जब दो विरही मिलते हैं—और विरहियो का मिलन सत्संग है। जब दो प्रेमी मिल जाते हैं, या चार प्रेमी मिल बैठते हैं, तो करते क्या हैं? रोते हैं और रुलाते हैं। रोमाचित होते हैं, एक दूसरे की भावदशा को पीते हैं, एक दूसरे की भावदशा से आदोलित होते हैं, एक—दूसरे से संक्रामित होते हैं।
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा ले आखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
इन घड़ियों में परमात्मा और थोड़े करीब आ जाता है। जितने तुम्हारे आंसू गहन होते हैं, उतना परमात्मा करीब आ जाता है—आंसू भरी आखें ही उसे देखने में समर्थ हो पाती हैं। आंसू से भरी आखें पात्र हो जाती हैं। लबालब। आंसू से भरी आखें तुम्हारी प्रार्थना से भरी आखें हैं, झलक उसकी गहराने लगती है। जितनी झलक गहराती है, उतनी तडूफ भी गहराने लगती है।
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके
0 comments:
Post a Comment