11/25/2020

भक्ती योग

एक मित्र ने पूछा है, भक्ति—योग में आपने प्रेम को आधारभूत स्थान दिया है। पता नहीं हम सामान्य लोग प्रेम से परिचित हैं या केवल कामवासना से! दोनों में क्या फर्क है? और क्या कामवासना प्रेम बन सकती है?

पूछने जैसा है और समझने जैसा है। 
कामवासना प्रेम बन सकती है। कामवासना का अर्थ है, दो शरीर के बीच आकर्षण, शरीर के बीच। प्रेम का अर्थ है, दो मनों के बीच आकर्षण। और भक्ति का अर्थ है, दो आत्माओं के बीच आकर्षण। वे सब आकर्षण हैं। लेकिन तीन तलों पर।

अगर आप किसी के शरीर की तरफ आकर्षित होकर धीरे— धीरे उसके मन की तरफ भी आकर्षित होने लगें, और किसी के मन के प्रति आकर्षित होकर धीरे— धीरे उसकी आत्मा के प्रति भी आकर्षित होने लगें, तो आपकी कामवासना विकृत नहीं हुई, ठीक मार्ग से चली और परमात्मा तक पहुंच गई।

शरीर तो केवल घर है। उसके भीतर निवास है। उसके भीतर दोहरा निवास है। उसके भीतर व्यक्ति का निवास है, जिसको मैं मन कह रहा हूं। और अगर व्यक्ति के भी भीतर प्रवेश करें, तो अंतर्गर्भ में परमात्मा का निवास है, जिसको मैं आत्मा कह रहा हूं। हर व्यक्ति अपने गहरे में परमात्मा है। अगर थोड़ा उथले में उसको पकड़े, तो व्यक्ति है। और अगर बिलकुल बाहर से पकड़े, तो शरीर है। हर व्यक्ति की तीन स्थितियां हैं। शरीर की भाति वह पदार्थ है। मन की भांति वह व्यक्ति है, चेतन। और परमात्मा की भांति वह निराकार है, महाशून्य है, पूर्ण।

कृष्ण का सुंदर शरीर, उनकी आंखें, उनका मोर—मुकुट, उनके हाथ की बांसुरी, उनका छंद—बद्ध व्यक्तित्व, उनका अनुपात भरा शरीर, उनकी नीली देह, वह अगर आपको आकर्षित करती हो, तो वह भी काम है। वह भी फिर अभी प्रेम भी नहीं है; भक्ति भी नहीं है।

और अगर आपको अपने बेटे के शरीर में भी, शरीर भूल जाता हो और जीवन का स्पंदन अनुभव होता हो। खयाल ही न रहता हो कि वह देह है, बल्कि इतना ही खयाल आता हो कि एक अभूतपूर्व घटना है, एक चैतन्य की लहर है। ऐसी अगर प्रतीति होती हो, तो बेटे के साथ भी प्रेम हो गया। और अगर आपको अपने बेटे में ही परमात्मा का अनुभव होने लगे, तो वह भक्ति हो गई।

किस के साथ पर निर्भर नहीं है भक्ति और प्रेम और काम। कैसा संबंध! आप पर निर्भर है। आप किस भांति देखते हैं और किस भांति आप गति करते हैं!

तो सदा इस बात को खयाल रखें, क्या आपको आकृष्ट कर रहा है—देह, पदार्थ, आकार?

कोई हर्ज नहीं। कम से कम शरीर खींचता है; यह भी तो खबर है कि आप जिंदा हैं। कोई चीज खींचती है। कोई चीज आपको पुकारती है। आपको बाहर बुलाती है। यह भी धन्यभाग है। लेकिन इस पर ही रुक जाना खतरनाक है। आप बहुत सस्ते में अपने जीवन को बेच दिए। आप कौड़ियों पर रुक गए। अभी और आगे यात्रा हो सकती थी। आप दरवाजे पर ही ठहर गए। अभी तो यात्रा शुरू ही हुई थी और आपने समझ लिया कि मंजिल आ गई! आपने पड़ाव को मंजिल समझ लिया। ठहरें; लेकिन आगे बढ़ते रहें।

मैंने सुना है, यहूदी फकीर हिलेल से किसी ने पूछा कि अध्यात्म का क्या अर्थ है? तो उसने कहा, और आगे, और आगे। वह आदमी कुछ समझा नहीं। उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं! तो हिलेल ने कहा कि जहां भी तेरा रुकने का मन होने लगे, इस वचन को याद रखना, और आगे, और आगे। जब तक तू ऐसी जगह न पहुंच जाए, जहां और आगे कुछ बचे ही नहीं, तब तक तू बढ़ते जाना। यही अध्यात्म का अर्थ है।

शरीर पर रुकना मत। और आगे। शरीर भी परमात्मा का है। इसलिए बुरा कुछ भी नहीं है। निंदा मेरे मन में जरा भी नहीं है। लेकिन शरीर शरीर ही है, चाहे परमात्मा का ही हो। वह बाहरी परकोटा है। और आगे। मन भी एक परकोटा है, शरीर से गहरा, शरीर से सूक्ष्म, लेकिन फिर भी परकोटा है। और आगे। और जब हम शरीर और मन दोनों को छोड़कर भीतर प्रवेश करते हैं, तो सब परकोटे खो जाते हैं और सिर्फ आकाश रह जाता है।

इसलिए किसी भी व्यक्ति के प्रेम से परमात्मा को पाया जा सकता है। एक पत्थर की मूर्ति के प्रेम में गिरकर भी परमात्मा को पाया जा सकता है। परमात्मा को कहीं से भी पहुंचा जा सकता है। सिर्फ ध्यान रहे कि रुकना नहीं है। उस समय तक नहीं रुकना है, जब तक कि शून्य न आ जाए और आगे कुछ भी यात्रा ही बाकी न बचे। रास्ता खो जाए, तब तक चलते ही जाना l

गीता दर्शन 
 भाग - 6, 
 अध्‍याय — 12
OSHO

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