क्या मेरी नियति में सिर्फ विषाद की, फ्रस्ट्रेशन की एक लंबी श्रंखला लिखी है?
तुम्हारे हाथ में है। लिखते जाओगे, तो लिखी रहेगी। विषाद कोई और तुम्हें नहीं दे रहा है, तुम्हारा चुनाव है।
भाग्य की पुरानी धारणा कहती है, लिखा हुआ है; और किसी और ने लिखा है, तुमने नहीं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं? भाग्य लिखा हुआ नहीं है, रोज—रोज लिखना पड़ता है। और किसी और के द्वारा नहीं, तुम्हारे ही हाथों से लिखा जाता है। यह हो सकता है कि तुम इतनी बेहोशी में लिखते हो कि अपने ही हाथ पराए मालूम होते हैं। तुम अपने को रंगे हाथ नहीं पकड़ पाते। तुम्हारे होश की कमी है। लेकिन कोई और तुम्हारा भाग्य नहीं लिखता है।
अगर कोई और तुम्हारा भाग्य लिखता है, तो सब धर्म व्यर्थ। फिर तुम क्या करोगे? तुम तो फिर असहाय मछली की तरह हो। फेंक दिया मरुस्थल में तो मरुस्थल में तड़पोगे, किसी ने डाल दिया जल के सरोवर में तो ठीक। फिर तो तुम दूसरों के हाथ का खिलौना हो, कठपुतली हो। फिर तो तुम मुक्त होना भी चाहो तो कैसे हो सकोगे? अगर भाग्य में मुक्ति होगी तो होगी, न होगी तो न होगी।
फिर तुमसे यह कहने का क्या अर्थ है कि ऐसा करो, कि पुण्य करो, कि जागो। जागना होगा भाग्य में तो जागोगे। तुम परवश हो।
सारी जिम्मेवारी तुमने किसी और के कंधों पर रख दी। तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारी बड़ी गहरी तरकीब है। तुम अपने परमात्मा के माध्यम से भी अपने को बचा लेते हो। तुम कहते हो, परमात्मा जो करवा रहा है, हो रहा है। करते तुम्हीं हो, होता वही है जो तुम कर रहे हो, चुनते तुम्हीं हो, बीज तुम्हीं बोते हो, फसल भी तुम्हीं काटते हो, लेकिन बीच में परमात्मा को ले आते हो, हल्के हो जाते हो। अपने हाथ में कुछ न रहा। जिम्मेवारी न रही, अपराध न रहा; पाप न रहा, पुण्य न रहा।
और यह तरकीब इतनी गहरी है—आस्तिक भगवान पर टाल देता है, नास्तिक प्रकृति पर टाल देता है, कम्युनिस्ट इतिहास पर टाल देता है, फ्रायड अचेतन मन पर टाल देता है। कोई अर्थशास्त्र पर टाल देता है, कोई राजनीति पर टाल देता है, ये सब तुम्हारे एक ही तरकीब के जाल हैं। कोई कर्म के सिद्धात पर टाल देता है।
लेकिन तुम थोड़ा सोचो, जैसे ही तुमने जिम्मेवारी छोड़ी, तुमने आत्मा भी खो दी। तुम्हारे उत्तरदायित्व में ही तुम्हारी आत्मा की संभावना है।
भाग्य से सावधान! भाग्य धार्मिक आदमी के मन की धारणा नहीं है।
अधार्मिक मन का मेरे लिए एक ही लक्षण है, वह अपनी आत्मा को स्वीकार नहीं करता।
पूछा है, ‘क्या मेरी नियति में सिर्फ विषाद की एक लंबी श्रृंखला लिखी है?’ कौन लिखेगा विषाद की लंबी श्रृंखला तुम्हारे जीवन में? किसको पड़ी है? कौन तुम्हें दुख देने को उत्सुक है? अगर परमात्मा कहीं है, तो एक बात निश्चित है कि तुम्हें दुख देने को उत्सुक नहीं है। परमात्मा और दुख देने को उत्सुक हो! तो फिर शैतान और परमात्मा का भेद क्या करोगे? और ध्यान रखना, परमात्मा अगर तुम्हें दुख देने में उत्सुक हो, तो खुद भी दुखवादी होगा और दुख ही पाएगा। जो दुख लिखेगा दूसरों के जीवन में, वह अपने जीवन में भी दुख लिख लेगा। यह भूल, अगर परमात्मा कहीं है, तो न करेगा।
परमात्मा शब्द को हटा लो, पूरा अस्तित्व कहो। अस्तित्व भी तुम्हारे जीवन में सुख चाहेगा, क्योंकि तुम अस्तित्व के हिस्से हो। तुम्हारा दुख अंतत: अस्तित्व के कंधों पर ही पड़ेगा। अगर व्यक्ति दुखी हैं, अगर अंश दुखी हैं, खंड दुखी हैं, तो पूर्ण भी दुखी हो जाएगा।
तुम्हारे सिर में दर्द है, तो सिर में ही थोड़े ही सीमित रहता है, तुम्हारे पूरे तन—प्राण पर फैल जाता है। तुम पूरे के पूरे ही उसके दुख को अनुभव करते हो। हम जुड़े हैं। यहां कोई भी दुखी होगा तो सारा अस्तित्व दुख से भरता है, कंपता है।
अस्तित्व की कोई आकांक्षा तुम्हें दुखी करने की नहीं है। अगर अस्तित्व की कोई आकांक्षा हो, तो तुम्हें महासुखी करने की होगी। फिर भी तुम दुखी हो। इसका एक ही अर्थ हो सकता है, तुम अस्तित्व से लड़ रहे हो, तुम अस्तित्व के विपरीत जा रहे हो, तुम नदी की धार से संघर्ष कर रहे हो।
नदी में या तो तुम तैर सकते हो नदी के विपरीत, तब तुम्हें नदी लड़ती हुई मालूम पड़ेगी कि तुमसे संघर्ष कर रही है। तब तुम्हें लगेगा कि नदी तुम्हारे विपरीत है, तुम्हारी शत्रु है।
फिर तुम्हें लगेगा कि विषाद ही विषाद मिल रहा है। और मजा यह है कि तुम्हारा अहंकार इसमें भी रस लेने लगेगा। तुम कहोगे, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं? मेरे जीवन में तो विषाद ही विषाद लिखा है। एक विषाद की लंबी कथा हूं। तुम इसके गीत गुनगुनाने लगोगे। तुम अपने दुख का भी श्रृंगार करोगे। तुम दुख का भी प्रदर्शन करने लगोगे।
कुछ और तरह से ध्यान आकर्षित करो। मुस्कुराकर आकर्षित करो। रोकर क्या आकर्षित किया! अगर लोगों की सहानुभूति चाहिए,.. प्रेम चाहो, सहानुभूति भी कोई बात है!
OSHO
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