10/08/2020

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उपनिषद का अर्थ होता है: गुरु के पास बैठना। उप निषद। पास बैठना। बस, इतना ही अर्थ है उपनिषद का। गुरु के पास मौन होकर बैठना; जिसने जाना है, उसके पास शून्य होकर बैठना। और उस बैठने में ही हृदय से हृदय आंदोलित हो जाते हैं। उस बैठने में ही सत्संग फल जाता है। जो नहीं कहा जा सकता, वह कहा जाता है। जो नहीं सुना जा सकता, वह सुना जाता है। हृदय की वीणा बज उठती है। जिसने जाना है, उसकी वीणा बज रही है। जिसने नहीं जाना है, वह अगर पास सरक आए तो उसके तारों में भी टंकार हो जाती है।

संगीतज्ञों का यह अनुभव है, अगर एक ही कमरे में--खाली कमरे में--सिर्फ दो वीणाएं रखी जाएं, द्वार-दरवाजे बंद हों और एक वीणा पर वीणावादक तार छेड़ दे, संगीत उठा दे, तो दूसरी वीणा जो कोने में रखी है, जिसको उसने छुआ भी नहीं, उस वीणा के तार भी झंकृत होने लगते हैं, एक वीणा बजती है तो हवाओं में आंदोलन हो जाता है, हवाओं में संगीत-लहरी फैल जाती है, स्पंदन हो जाता है। वह स्पंदन जिस वीणा को छुआ भी नहीं है, उसके भीतर भी सोए संगीत में हलचल मचा देता है। उसके तार भी जैसे नींद से जाग आते हैं, जैसे सुबह हो गयी।

आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले एक वैज्ञानिक ने पहली दफा इस सिद्धांत को खोला। वह इसे कोई नाम न दे सका। फिर अभी कुछ वर्षों पहले, कोई चालीस वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव जुंग नाम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने इसे नाम दिया: "सिंक्रानिसिटी।'। जिस वैज्ञानिक ने पहली दफा यह खोज की थी, वह एक पुराने किले में मेहमान था, एक राजा के घर मेहमान था। और जिस कमरे में वह था, दो घड़ियां उस कमरे में एक ही दीवाल पर लटकी हुई थीं। पुराने ढब की घड़ियां। मगर वह हैरान हुआ यह बात जान कर कि उनका पेंडुलम एक साथ घूमता है। मिनिट और सेकेंड भी भिन्न नहीं। सेकेंड सेकेंड वे एक साथ चलतीं। इन दो घड़ियों के बीच उसे कुछ ऐसा तालमेल दिखायी पड़ा--वैज्ञानिक था, सोच में पड़ गया! कि इस तरह की दो घड़ियां उसने देखी नहीं जिनमें सेकेंड का भी फर्क न हो। तो उसने एक काम किया, कि यह संयोग हो सकता है, उसने एक घड़ी बंद कर दी रात को। और दूसरे दिन सुबह शुरू की और दोनों के बीच कोई तीन-चार मिनिट का फासला रखा। चौबीस घंटे पूरे होते-होते दोनों घड़ियां फिर साथ-साथ डोल रही थीं। बराबर, सेकेंड-सेकेंड करीब आ गये थे, पेंडुलम फिर साथ-साथ लयबद्ध हो गये थे। तब तो यह चमत्कृत हो गया। राज क्या है? आया था दिन-दो दिन के लिए, लेकिन सप्ताहों रुका--जब तक राज न खोज लिया।

राज यह था कि वह जिस दीवाल पर लटकी थी, उस पर कान लगा-लगा कर वह सुनता रहा कि क्या हो रहा है, तब उसे समझ में आया कि एक घड़ी के पेंडुलम टीक्-टीक्, जो बड़ी घड़ी थी उसकी टिक्-टीक् दीवाल के द्वारा दूसरी घड़े के पेंडुलम को भी संचालित कर रही है, उसमें एक लयबद्धता पैदा कर रही है। और बड़ी घड़ी इतनी बलशाली है कि छोटी घड़ी करे भी तो क्या करे! वह छोटी सहज ही उसके साथ लयबद्ध हो जाती है।

उसने इसको सिर्फ लयबद्धता कहा था। लेकिन जुंग ने इसे पूरा वैज्ञानिक आधार दिया और " सिंक्रानिसिटी' कहा; और सिर्फ घड़ियों के लिए नहीं, जीवन के समस्त आयामों में इस लयबद्धता के सिद्धांत को स्वीकार किया।
रहस्यवादी तो इस सिद्धांत से हजारों वर्षों से परिचित हैं। सत्संग का यही राज है, "सिंक्रानिसिटी'। सदगुरु यूं समझो कि बड़ी घड़ी, कि बड़ा सितार। शिष्य यूं। समझो कि छोटी घड़ी, छोटा सितार। और शिष्य अगर राजी हो, श्रद्धा से भरा हो और बड़े सितार के पास सिर्फ बैठ रहे, कुछ न करे, तो भी उसके तार झंकृत हो जाएंगे।
ओशो : दीपक बार नाम का

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