4/28/2020

4/26/2020

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post 4

 The boat may remain in water, but if water enters the boat it will bring great catastrophe. [Likewise] a man may live in the world, but if the world enters [the mind of] the man the whole life will be miserable.

('Guru Vachaka Kovai', v. 821)
_______________________________________________

- Translated by Sadhu Om and Michael James.

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“First one sees the Self as objects, then one sees the Self as void, then one sees the Self as Self, only in this last there is no seeing because seeing is being.” 

(Bhagavan in 'Day by Day with Bhagavan', 21-7-1946)

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Grace is ever present. All that is necessary is that you surrender to It ~ Sri Ramana in Talk 472.

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4/18/2020

रामायण

रामायण कलाकार 
       

Arun Govil-Ram
Dipika Chikhlia _ Seeta
Sunil Lahari-Laxman
Dara Singh-Hanuman
 Swapnil joshi - kush
Jay shree RAM

4/17/2020

रामायण

शबरी बोली, यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो राम तुम यहाँ कहाँ से आते?"

     राम गंभीर हुए। कहा, "भ्रम में न पड़ो अम्मा! राम क्या रावण का वध करने आया है? छी... अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है। राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है अम्मा, ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था। जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है। राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है। राम वन में इसलिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतिक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं।

सबरी एकटक राम को निहारती रहीं। राम ने फिर कहा- " राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए आदर्श की स्थापना के लिए। राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है l राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाय, और खर-दूषणो का घमंड तोड़ा जाय। और राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी सबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।"
      सबरी की आँखों में जल भर आया था। उसने बात बदलकर कहा- कन्द खाओगे राम?
राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं अम्मा..."
        सबरी अपनी कुटिया से झपोली में कन्द ले कर आई और राम के समक्ष रख दिया। राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा- मीठे हैं न प्रभु?
         यहाँ आ कर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ अम्मा! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है...
         सबरी मुस्कुराईं, बोलीं- "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो राम! गुरुदेव ने ठीक कहा था..."

4/15/2020

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In the interior of the Heart-cave
Brahman alone shines in the form of the Atman
with direct immediacy as I, as I.
Enter into the Heart
with questing mind
or by diving deep within
or through control of breath,
and abide in the Atman.
 
~~~~~~

Sri Ramana Gita

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सत्व प्रधान व्यक्ती ही जीवन के अंत काल में होश से भरे रहते है ! सच है!

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4/14/2020

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Hold on tight to the Truth that you have found, the Divine carries you places with love, gives you strength for every battle, wisdom for every decision and peace that surpasses human understanding. Hara Hara Mahadeva.
#Yogi Anandnath

4/13/2020

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He [She] who gives himself up to the Self that is God is the most excellent devotee. ~ Sri Ramana Maharshi

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Giving one self up to God, means constantly remembering the Self.

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Sri Ramana's teaching is beautiful and direct. There is no mumbo jumbo, no secret mantras or handshakes to know. There is no dependence on rituals or outside forces or some high authority. Bhagavan says that you are the Self. Being the Self is nothing more than knowing that one is pure Being, Pure Existence, the substratum of everything.

4/12/2020

श्री गुरुदेव दत्त

दत्तात्रेय !!! स्वात्मदान करणारे आणि आपल्या नावात पितृ उल्लेख असलेले तसेच आजही ज्यांचा अवतार समाप्त न होता अखंड आहे ,ज्यांचे कोणतेही वाहन नाही मात्र क्षणात कुठेही मनोवेगें जाणारे दत्त महाराज ! . स्मर्तृगामी असे कोणते दैवत आहे ? भक्तांचा गौरव हाच ज्यांचा अभिमान ,भक्तांचा योगक्षेम हीच ज्यांची चिंता अशा देवतेची उपास्य दैवत म्हणून प्राप्ती व्हावी हे आमचे अहोभाग्य .

नित्य गंगा स्नान करणारे ,माहूर येथे निद्रा ,सह्याद्री पर्वतावर आसन ,ध्यानधारणा गाणगापूर तर भस्मधारण धोपेश्वर येथे , संध्यावंदन कऱ्हाड तर कोल्हापूर इथे भिक्षाटन ,पांचाळेश्वरला भोजन तर पंढरपुरी सुगंधलेपन (चंदन अथवा गंधलेपन ) आणि पश्चिम सागरी सायंकाळी अर्घ्यदान हे ज्यांचे नित्य आचरण आहे त्यांना आमचा नमस्कार असो . (थोरल्या महाराजांनी दत्त माहात्म्यात याला विचित्राचरण म्हटले आहे .)

अत्यंत कनवाळू आणि मायेने जवळ घेणाऱ्या ,शरण आलो असे म्हणताच सांभाळ करणाऱ्या अशा या दत्त महाराजांचा भक्तिमार्ग तरी कसा आहे ? त्यांची भक्ती तरी कशी करावी ? तर केवळ स्मरणमात्रें संतुष्ट होणारे आणि जलाभिषेकाने पूजन केले असता संतोष होणारे हे दैवत आहे .इतर काही उपचार नसले तरी काही हरकत नाही . सर्व तिथी ,वार ,ऋतू हे त्यांच्या पूजनाला अनुकूल आहेत आणि त्यांचे पूजन हा भक्तांचा उत्सव असतो अशा दत्त महाराजांना आपण प्रिय होण्यासाठी अधिक काय करावे ? नवविधेच्या कोणत्याही प्रकाराने ते भक्तांना वश होतात आणि भक्तांच्या अगदी क्षुल्लक अशा कामना पूर्ण करण्यास ते झटतात . आपले सर्व भक्त हे त्यांना प्राणप्रिय असतात तेव्हा त्यांच्यावर सर्व चिंता सोडून निर्धास्त व्हावे आणि नमस्कार करून म्हणावे ,श्री गुरुदेव दत्त !!! --- अभय आचार्य

आनंद के प्रकार

|| आनंद के प्रकार ||
[ 1 ] जड़ – जड़ संयोगजन्य :- ये माया के रजोगुण और तमोगुण के संयोग से प्राप्त होते हैं | सांसारिक सभी सुख इसी कक्षा में आते हैं |
[2 ] जड़ – चेतन संयोगजन्य :- यह सतोगुण से प्राप्त होने वाला सुख है | यह ज्ञानियों को होता है | यह समाधि का सुख है , जो आत्मस्वरूप में स्थिति होने पर मिलता है | यह बहुत बड़ा सुख होता है |
[ 3 ] चेतन – चेतन संयोगजन्य :-  [ 1 ] यह दिव्य आनंद होता है , जो भगवान के निर्गुण – निराकार स्वरूप [ ब्रह्म ] की प्राप्ति पर ज्ञानियों को होता है | यह अनंत मात्रा का और अनंत काल के लिए होता है | यह ब्रह्म – ज्ञानियों को अखंड रस स्वरूप मिलता है | यह आत्म –ज्ञान से प्राप्त सुख से करोड़ों गुना अधिक होता है | इसे ब्रह्मानन्द कहते हैं |   
                              [ 2 ] प्रेमानन्द :- यह चेतन – चेतन संयोग से , सगुण –साकार भगवान की प्राप्ति से होता है | यह दिव्यानंद होता है , जो अनंत मात्रा और अनंत काल के लिए होता है | पर ब्रह्मानन्द की तुलना में यह सागर के बराबर और ब्रह्मानन्द गाय के खुर के गड्ढे के बराबर होता है | महाराज जनक , जो सदैव ब्रह्मानन्द में ही लीन  रहते थे , भगवान राम के दर्शन होने पर इतने मुग्ध हो गए कि, भगवान के मुख – कमल  पर  मानो उनकी दृष्टि अटक गई हो ? उन्होने अपने ब्रह्मानन्द को एक क्षण में ही भुला दिया | 
यही दिव्यानंद भक्ति से सिद्ध भक्तों को गोलोक की प्राप्ति होने पर , श्री कृष्ण भगवान के दर्शन होने पर मिलता है | वे वहाँ पर अनंत काल तक यह आनंद भोगते हैं | वे अपनी मर्जी से अथवा भगवान  की इच्छा से अगर पृथ्वी पर लोक कल्याण के लिए आते भी हैं , तो कार्य समाप्ती पर पुन: गोलोक में ही जाते हैं | यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सिद्ध – भक्तों को लेने [ मृत्यु होने पर ] भगवान स्वयं आते हैं [ गीता 12/7 ] जबकि साधक भक्तों को लेने भगवान के पार्षद आते हैं | 
|| इति ||

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 **"जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है*तब...महत्वपूर्ण होती है विजय, केवल विजय...**
************
 #महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था, युद्धभूमि में यत्र- तत्र योद्धाओं के फ़टे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हुए थे । वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी ।

 गिद्ध, कुत्ते, सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में द्वापर का सबसे महान योद्धा देवब्रत भीष्म पितामह मृत्युशैय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था अकेला...

तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची "प्रणाम पितामह"
भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी...बोले, "आओ देवकीनंदन...स्वागत है तुम्हारा...मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था"

कृष्ण बोले,"क्या कहूँ पितामह...अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप"

भीष्म चुप रहे...!

कुछ क्षण बाद बोले,"पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव...? 
उनका ध्यान रखना, परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है"
कृष्ण चुप रहे...?

भीष्म ने पुनः कहा, "कुछ पूछूँ केशव...? 
बड़े अच्छे समय से आये हो, सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाय"

कृष्ण बोले-कहिये न पितामह...! 
एक बात बताओ प्रभु...! 
तुम तो ईश्वर हो न...

कृष्ण ने बीच में ही टोका,"नहीं पितामह...! मैं ईश्वर नहीं... मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह, ईश्वर नहीं"

भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े बोले, "अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण, सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया, अब तो ठगना छोड़ दे रे..."

कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले,"कहिये पितामह"
भीष्म बोले, "एक बात बताओ कन्हैया...? 
इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या...?"

"किसकी ओर से पितामह...? पांडवों की ओर से...?"

"कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया, पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था...? 

आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन की छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध, सब ठीक था क्या...? 
यह सब उचित था क्या...?"

इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह...? 
इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया...?
उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम,
 उत्तर दें, कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन, 
मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह...!

"अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण...? 

अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है, पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है...! मैं तो उत्तर तुम्हीं से पूछूंगा...? 

कृष्ण..." - "तो सुनिए पितामह...! कुछ बुरा नहीं हुआ, 
कुछ अनैतिक नहीं हुआ...वही हुआ जो हो होना चाहिए"

"यह तुम कह रहे हो केशव...? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है...? 
यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया...?"
*******
"इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह, पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है...

 हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है...राम त्रेता युग के नायक थे, मेरे भाग में द्वापर आया था...हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह"
******
"नहीं समझ पाया कृष्ण...तनिक समझाओ तो...?"
"राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह...? 
********
राम के युग में खलनायक भी 'रावण' जैसा शिवभक्त होता था...तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण और कुम्भकर्ण जैसे सन्त हुआ करते थे

...तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे !

उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था... इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया...!

किंतु मेरे युग के भाग में में कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुःशासन, शकुनी, जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं... उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह...!
पाप का अंत आवश्यक है पितामह, वह चाहे जिस विधि से हो"

"तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव...? 
क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा ? 
और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा...?"
**********
"भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह...कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा... वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा, नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा...!

"जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह...तब...महत्वपूर्ण होती है विजय, केवल विजय...भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह"
*********
"क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव...? 
और यदि धर्म का नाश होना ही है, तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है...?"
*******
"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह...! ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता, सब मनुष्य को ही करना पड़ता है..
********
.आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न...तो बताइए न पितामह, मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या? सब पांडवों को ही करना पड़ा न...? 
यही प्रकृति का विधान है...युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से...यही परम सत्य है"

भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे...!

उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी...उन्होंने कहा- चलो कृष्ण...यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है, कल सम्भवतः चले जाना हो...अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना...कृष्ण"

कृष्ण ने मन में ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले, पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था...

"जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है...!!!"

जय श्री कृष्णा 💖🙏

4/08/2020

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THE POWER OF SELF ATTENTION GROWS THROUGH PRACTICE

When we first start to practice turning our attention back towards our self, the power of our self-attention will be relatively weak, so we will be able to notice the rising of any vasanas in the form of thoughts only after they have already swept us away. 

However with practice the power of our self-attention will increase, and the more it increases the more easily we will be able to cognize the exact moment that any vasana arises as a thought. If our self-attention is firm, our experience at that moment will be that this thought arises only because I know it, so our attention will cling to our self, the ‘I’ that is aware of the thought, and thus the thought will subside, being deprived of the attention that it needs to survive. 

Each time that we deprive any thought of our attention by holding fast to self-attention in this way, we are weakening the vasana that gave rise to it, and strengthening our love and ability to hold on to self-attention.

- Sadhu Om,  Mountain Path

4/03/2020

*प्रभु श्रीरामांची वंशावळ*

०० - ब्रह्मा

०१ - ब्रह्माचा पुत्र मरीची.

०२ - मरीची चा पुत्र कश्यप.

०३ - कश्यप चा पुत्र विवस्वान.

०४ - विवस्वान चा पुत्र वैवस्वत मनु.
       (याच्याच काळात जलप्रलय झाला)

०५ - वैवस्वत मनुचा तिसरा पुत्र इक्ष्वाकु,
       १० पैकी. (याने अयोध्याला राजधानी 
       व इक्ष्वाकु कुळाची स्थापना केली)

०६ - इक्ष्वाकुचा पुत्र कुक्षी.

०७ - कुक्षीचा पुत्र विकुक्षी.

०८ - विकुक्षीचा पुत्र बाण.

०९ - बाणचा पुत्र अनरण्य.

१० - अनरण्यचा पुत्र पृथु.

११ - पृथुचा पुत्र त्रिशंकु.

१२ - त्रिशंकुचा पुत्र धुंधुमार.

१३ - धुंधुमारचा पुत्र युवनाश्व.

१४ - युवनाश्वचा पुत्र मान्धाता.

१५ - मान्धाताचा पुत्र सुसंधी.

१६ - सुसंधीचे २: ध्रुवसंधी व प्रसेनजित.

१७ - ध्रुवसंधी चा पुत्र भरत.

१८ - भरतचा पुत्र असित.

१९ - असितचा पुत्र सगर.

२० - सगरचा पुत्र असमंज.

२१ - असमंजचा पुत्र अंशुमान.

२२ - अंशुमानचा पुत्र दिलीप.

२३ - दिलीपचा पुत्र भगीरथ.
       (यानेच गंगा पृथ्वीवर आणली)

२४ - भागीरथचा पुत्र ककुत्स्थ.

२५ - ककुत्स्थचा पुत्र रघु.
       (अत्यंत तेजस्वी, न्यायनिपुण, पृथ्वीवरचा
       पहिला ज्ञात चक्रवर्ती. म्हणूनच इक्ष्वाकू
       कुळ हे *रघुकुळ* म्हणुन प्रसिद्ध झाले)

२६ - रघुचा पुत्र प्रवृद्ध.

२७ - प्रवृद्धचा पुत्र शंखण.

२८ - शंखणचा पुत्र सुदर्शन.

२९ - सुदर्शनचा पुत्र अग्निवर्ण.

३० - अग्निवर्णचा पुत्र शीघ्रग.

३१ - शीघ्रगचा पुत्र मरु.
        (याच्या सत्तेने आताचे अरबस्तान #
         मारुधर, मरुस्थान किंवा मरूभूमी
         म्हणून ओळखले जायचे)

३२ - मरुचा पुत्र प्रशुश्रुक.

३३ - प्रशुश्रुकचा पुत्र अम्बरीष.
       (राजाने कायम संन्यस्त असावे
        याचा परिपाठ यांनीच घातला)

३४ - अम्बरीषचा पुत्र नहुष.
       (यांच्यापासुन कुरुवंश सुरु होतो)

३५ - नहुषचा पुत्र ययाति.

३६ - ययातिचा पुत्र नाभाग.

३७ - नाभागचा पुत्र अज.

३८ - अजचा पुत्र दशरथ.

३९ - दशरथचे चार पुत्र
      *राम, भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न.*

ब्रह्माच्या *४०व्या पीढ़ीत* श्रीराम जन्मले.

*चाळीस पिढ्यात*
*असं झालं नाही, अस केलं नाही,*
👆चाळीस पिढ्या 
हे वाक् प्रचार यातुन जन्माला आले. अतिषय दुर्मिळ माहीती शेअर करित आहे ती वाचा नक्की आवडेल .
ज्याने ही माहीती मिळवली त्याला 
माझे शतश: प्रणाम....
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

श्रीराम

*श्रीरामाना चौदा वर्षाचा वनवास का? कमी किंवा जास्त का नाही?*
*प्रथम रामायणातील मुख्य पात्र पाहिलीतर वशिष्ठ दशरथ त्याच्या तीन पत्नी चार मुले आणि सीता इकडे रावण कुंभकर्ण विभीषण व इंद्रजित असे 14 होतात*
*वनवास म्हणजे संयमित जीवन*
*14 म्हणजे 14 लोक 14 रत्ने 14 विद्या*
*श्रीराम हे 14 कलानी युक्त होते आणि त्या कला क्षीण व्हाव्या म्हणजे 14 वर्षे वनवास पण झाले उलटे*
*व्यवहारिक व राजकीय पाहिले तर 14 वर्षे जो कोणी राज्य करत नाही त्याचा अधिकार त्यावर रहात नाही आता तो कायदा 12 वर्षांचा झाला आहे*
*त्या सगळ्याचा मृत्यू 14 वर्षा नंतर येणार असतो इंद्रजिताला वरदान असते की त्याचा मृत्यु जो कोणी 14 वर्षे झोपणार नाही व ब्रह्मचर्य पाळेल त्याच्या कडुन होईल ते कार्य लक्षुमनजीने केले*
*पाच इंद्रिये पंच ज्ञानेंद्रिय व मन बुद्धी चित्त व अहंकार 14 झाले*
*रावणाचे राज्य या आधिपत्य 14 ही लोकांवर होते त्या मुळे रामानी 14 वर्षे वनवासात संयमित राहुन शक्ती वाढवली कारण त्याचा अवतार हा 14 कलानी युक्त होता कला म्हणजे शक्ती आणि ती शक्ती त्यानी रावणाच्या शक्ती पेक्षा जास्त वाढवली वनवासात राहुन*
*म्हणजेच 14 वर्षांचा वनवास रामाना मिळाला कमी नाही व जास्त पण नाही*
*एक लहानसा प्रयास आजुन विद्वानांनी जास्त प्रकाश टाकावा*
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          *जय सच्चीदानंद स्वामी*
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          *किशोर एस वैद्य*
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4/02/2020

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Surrender yourself unreservedly and the Higher Power will reveal itself. Either the thoughts are eliminated by holding on to the root thought ‘I’ or one surrenders oneself unconditionally to the Higher Power. These are the only two ways for realisation. It is not enough that one thinks of God while doing the karma, but one must continually and unceasing think of Him. Then alone will the mind become pure. God cannot be deceived by outward genuflections, bowings and prostrations. Leave it to Him. Surrender unreservedly. One of two things must be done. Either surrender because you admit your inability and also require a Higher Power to help you; or investigate into the cause of misery, go into the source and merge into the Self. Either way you will be free from misery. God never forsakes one who has surrendered.
~ Ramana Maharshi

If you are a bhakta (devotee), sink you "I" in the "Thou," and if you proceed by the path of self-enquiry, let the "you" be drowned in the "I."
~ Sri Anandamayi Ma

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