अध्यात्म उपनिषद ..ओशो(प्रवचन --12)
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बुद्ध के जीवन में बड़ी साफ बात है। बुद्ध छह साल तक कोशिश करते रहे—अथक—मिल जाए मोक्ष, मिल जाए शांति, मिल जाए सत्य। नहीं मिला। सब गुरुओं के चरणों को टटोल आए। गुरु भी उनसे थक गए। क्योंकि वे आदमी तलाशी थे, पक्के थे, क्षत्रिय की जिद्द थी, कि खोज कर रहूंगा, क्षत्रिय का अहंकार था, कि ऐसी क्या चीज हो सकती है जो हो और न मिले! असंभव नहीं मानता है क्षत्रिय। वही क्षत्रिय का अर्थ है। तो जिन—जिन गुरुओं के पास गए, वे भी उनसे मुसीबत में पड़ गए। क्योंकि गुरु जो भी कहते, बुद्ध तत्काल करके दिखा देते। कितना ही कठिन हो, कितना ही शीर्षासन करना पड़े,कितना धूप—वर्षा में खड़ा रहना हो, कितना उपवास करना हो—जो भी कोई कहता—पूरा करके बता देते और कुछ भी न होता! वे गुरु भी थक गए। उन्होंने कहा, हम भी क्या करें!
गुरु साधारण शिष्य से नहीं थकता; क्योंकि साधारण शिष्य कभी मान कर चलता ही नहीं। इसलिए कभी ऐसी नौबत नहीं आती कि गुरु को यह कहना पडे अब हम क्या करें, जो हम कर सकते थे, कर चुके! बुद्ध जैसा शिष्य मिले तो बहुत मुश्किल खड़ी हो जाती है; क्योंकि बुद्ध, जो भी गुरु कहता, पूरा करते। उसमें गुरु भी भूल नहीं निकाल सकता था। और कुछ होता नहीं! आखिर एक गुरु कहता है कि अब मैं जो कर सकता था, जो बता सकता था, मैंने बता दिया, इसके आगे मुझे भी पता नहीं है, अब तुम कहीं और चले जाओ!
सब गुरु उनसे ऊब गए! और वे जिद्दी पक्के थे। छह वर्ष तक,जिसने जो कहा—सही, गलत संगत, असंगत—सब उन्होंने पूरा किया,और बडी निष्ठा से पूरा किया। एक भी गुरु यह नहीं कह सका कि तुम पूरा नहीं कर रहे, इसलिए नहीं हो रहा है। क्योंकि वे इतना पूरा कर रहे थे कि गुरुओं तक ने उनसे क्षमा मांगी. कि जब तुम्हें हो जाए कुछ और ज्यादा, हमको भी खबर करना। क्योंकि जो भी हम जानते थे, वह पूरा बता दिया है। कुछ भी नहीं हो रहा है!
ऐसा नहीं था कि जो बताया था, उससे उन गुरुओं को नहीं हुआ था, उससे उनको हुआ था। किया बराबर बुद्ध भी वही कर रहे थे, जो गुरु ने की थी और पाया था। तो गुरु भी मुश्किल में था, कि यही क्रिया पूरी कर रहे हो, मुझसे भी ज्यादा पूरी कर रहे हो, इतनी निष्ठा से मैंने भी कभी नहीं किया था, फिर क्यों नहीं हो रहा!
पर कारण था। उस गुरु को हुआ होगा, क्योंकि उसने क्रिया की थी बिना किसी लक्ष्य के खयाल के। बुद्ध को लक्ष्य प्रगाढ़ था। कर रहे थे वे, लेकिन नजर लक्ष्य पर थी कि कब सत्य, कब आनंद, कब मोक्ष मिले! तो क्रिया पूरी कर देते थे, लेकिन वह जो लक्ष्य था, वह बाधा बन रहा था।
आखिर बुद्ध भी थक गए। छह वर्ष के बाद एक दिन उन्होंने सब छोड़ दिया। संसार तो पहले ही छोड़ चुके थे, फिर संन्यास भी छोड़ दिया। भोग तो पहले ही छोड़ चुके थे, ये छह साल योग में बर्बाद किए थे, फिर योग भी छोड़ दिया। और एक रात उन्होंने तय कर लिया कि अब कुछ भी नहीं करना; अब खोजना ही नहीं। समझ लिया कि कुछ है नहीं मिलने वाला। तनाव पर पहुंच गए थे आखिरी खोज के। श्रम,प्रयास चरम हो गया था; छोड़ दिया। उस रात वृक्ष के नीचे सो गए।
वह पहली रात थी अनेक—अनेक जन्मों में, जब बुद्ध ऐसे सोए कि सुबह करने को कुछ भी बाकी नहीं था। कुछ था ही नहीं बाकी करने को! राज्य छोड़ चुके थे, घर छोड़ चुके थे, संसार की सारी आयोजना छोड़ चुके थे, दूसरी योजना पकड़ी थी, वह भी व्यर्थ हो गई थी, अब कोई हाथ में था ही नहीं काम सुबह। कल उठें तो ठीक, न उठें तो ठीक,जन्म रहे तो बराबर, मृत्यु हो जाए तो बराबर—अब कोई अंतर न था,कल सुबह करने को कुछ बचा ही नहीं था; कल का कोई मतलब ही नहीं था।
और जब कोई रात ऐसे सो जाता है कि जिस रात में सुबह की कोई योजना न हो, तो समाधि घटित हो जाती है। सुषुप्ति समाधि बन जाती है; क्योंकि सुबह की कोई वासना ही न थी, कोई लक्ष्य शेष न रहा था, कुछ पाने को नहीं था, कहीं जाने को नहीं था, सुबह होगी तो क्या करेंगे—यह सवाल था। अब तक करना था, करना था, करना था। अब करना बिलकुल नहीं था। बुद्ध रात ऐसे सोए कि सुबह उठेंगे तो क्या करेंगे? सूरज ऊगेगा, पक्षी गीत गाएंगे, मैं क्या करूंगा? शून्य था उत्तर।
लक्ष्य जब नहीं होते, भविष्य नष्ट हो जाता है। लक्ष्य जब नहीं होते, समय व्यर्थ हो जाता है। लक्ष्य जब नहीं होते, योजनाएं टूट जाती हैं, मन की यात्रा बंद हो जाती है। क्योंकि मन की यात्रा के लिए योजना चाहिए; मन की यात्रा के लिए लक्ष्य चाहिए; मन की यात्रा के लिए कुछ पाने का बिंदु चाहिए; मन की यात्रा के लिए भविष्य चाहिए, समय चाहिए। सब नष्ट हो गया।
बुद्ध उस रात सो गए, जैसे कोई आदमी जिंदा जी मर गया हो। जीते थे, मौत घट गई। सुबह पाच बजे आंख खुली। तो बुद्ध ने कहा है,मैंने आंख नहीं खोली। क्या करेंगे आंख खोल कर भी? न कुछ देखने को बचा, न कुछ सुनने को बचा, न कुछ पाने को बचा, क्या करेंगे आंख खोल कर भी? इसलिए बुद्ध ने कहा, मैंने आंख नहीं खोली, आंख खुली। थक गई बंद रहते—रहते, रात भर बंद थी, विश्राम पूरा हो गया,पलक खुल गई। शून्य था भीतर। जब भविष्य नहीं होता, भीतर शून्य हो जाता है। उस शून्य में बुद्ध ने रात का आखिरी तारा डूबता हुआ देखा। और उस आखिरी तारे को डूबते देख कर बुद्ध परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए। उस डूबते तारे के साथ बुद्ध का सब अतीत डूब गया। उस डूबते तारे के साथ सारी यात्रा डूब गई, सारी खोज डूब गई।
बुद्ध ने कहा है कि मैंने पहली दफा निष्प्रयोजन आकाश में डूबते तारे को देखा—निष्प्रयोजन। कोई प्रयोजन नहीं था। न देखते तो चलता, देखते तो चलता। इस तरफ, उस तरफ चुनने की भी कोई बात न थी। आंख खुली थी, इसलिए तारा दिख गया। डूब रहा था, डूबता रहा। उधर तारा डूबता रहा, उधर आकाश तारों से खाली हो गया, इधर भीतर मैं बिलकुल खाली था, दो खाली आकाशों का मिलन हो गया। और बुद्ध ने कहा है जो खोज—खोज कर न पाया, वह उस रात बिना खोजे मिल गया। दौड़ कर जो न मिला, उस रात बैठे—बैठे मिल गया, पड़े—पड़े मिल गया। श्रम से जो न मिला, उस रात विश्राम से मिल गया।
पर क्यों मिल गया वह? आनंद, जब आप भीतर शून्य होते हैं,उसका सहज परिणाम है। आनंद के लिए जब आप दौड़ते हैं, शून्य ही नहीं हो पाते, वह आनंद ही दिक्कत देता रहता है, शून्य ही नहीं हो पाते,इसलिए सहज परिणाम घटित नहीं होता है।
(क्रमशः)
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