7/02/2017

संन्यासी

मैंने जब संन्यास देना शुरू किया, तो पुरूषों के लिए परंपरागत नाम था संन्यासी का : स्वामी। स्त्री के लिए कोई नाम न था। क्योंकि भारत में हजारों साल से स्त्री को इस तरह दबाया है, इस बुरी तरह मिटाया है, उसे कभी मौका भी नहीं दिया है कि वह संन्यास में दीक्षित हो सके। उसके लिए कोई नाम भी नहीं है। बहुत खोज कर मैंने 'मां' का ही वह नाम स्वीकार किया, क्योंकि 'मां' में ही उसकी पूर्णता है। लेकिन यह मां की पूर्णता इस बात का सबूत है कि तुम्हारा प्रेम इतना ऊंचा उठ जाए कि ये सारे जगत में तुम्हारे लिए सभी यूं हो जाएं, जैसे तुम्हारे बच्चे  हैं - तुम्हारा पति भी। यही उपनिषद के ऋषियों का आशीर्वाद है। जब कभी कोई उपनिषद के ऋषियों के पास कोई जोड़ा आशीर्वाद के लिए जाता था, तो एक बहुत ही अनूठा आशीर्वाद, दुनिया के किसी शास्त्र में वैसा आशीर्वाद नहीं है। ऋषि आशिर्वाद देता है कि हे युवती, तू दस बच्चों की मां हो और अंततः तेरा पति तेरा ग्यारहवां बेटा हो। जब तक यह न हो जाए, तब तक तू समझना कि जीवन-यात्रा पूरी नहीं हुई है। और जिस दिन कोई स्त्री अपने पति को भी अपने बेटे की तरह मान सके, जान सके, जी सके, उस दिन उसके लिए सारे जगत में सिवाय बेटों के और कौन रह जाता है?

ओशो,
फिर अमरित की बूंद पडी

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