श्रीकृष्ण भगवान् का श्रीमद्भगवद्गीतामें
-०-०-०- आत्मापर निरुपण -०-०-०-
लेखांक 28 गुरुवार दि.२२सितम्बर १६
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कृपया यह ध्यान में रखे की इस लेखमाला में जो गीता के केवल आत्मज्ञानपर श्लोक है उनका ही स्पष्टीकरण दिया गया है।
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आ. नि. क्रमांक 29
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमान्प्रोति न कामकामी।।२/ ७०।।
स्पष्टीकरण : भगवान् श्रीकृष्ण ने समुद्रको अचल प्रतिष्ठावाला कहा है। यहाँ पर प्रतिष्ठा यानि स्थिति ऐसा अर्थ लेना चाहिए। सर्व काल अपनी मर्यादा में स्थित होनेसे समुद्रकी प्रतिष्ठा अचल होती है। सब ओरसे नदियाँ आदिका जल निरंतर समुद्रमें आकर मिलते रहता है। फिर भी समुद्र की अचल स्थिति में कोई विकार उत्पन्न नही होता। समुद्र जैसे है वैसेहि रहता है। सभी ओरसे आनेवाला जल समुद्रमें बिना विकार निर्माण किये ही समा जाता है।
ऐसेही, जो स्थितप्रज्ञ ज्ञानी महात्मा है उसका चित्त निरंतर अविचल रहता है। संसार में रहते हुए और सभी कर्म सामान्यरूपसे करते हुए, उसके चित्त में भी अनेक विषय प्रवेश करते है। विषयोंका संग होने पर अनेक इच्छाओंका निर्माण वैसेहि होता है जैसे सामान्य मनुष्यके मन में होते रहता है। किन्तु उसकी समस्त इच्छाएँ, जल जैसे समुद्रमें लीन हो जाता है, वैसेहि बिगर कुछ विकार उत्पन्न किये आत्मा में ही लीन हो जाती है। कोई भी एक या अनेक इच्छा उस परमज्ञानी को वश में नही कर सकती। आत्मा में विलीन हो कर नष्ट हो जाती है।
ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पुरुषको मोक्ष मिलता है जिसकी कामना पूर्णतया नष्ट हो गयी होती। जो मनुष्य भोगोंकी कामना करता है और जिसके मन में सुप्त या प्रकट कोई भी इच्छा रहे, तो उसे मोक्ष मिलना असंभव है। भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसे व्यक्तियोंके लिए "कामकामी" इस शब्द का प्रयोग किया है। अभिप्राय यह है कि जिनको पानेके लिए इच्छा की जाती है, उन भोगोंका नाम "काम" है। उनको (कामको) पानेकी इच्छा करना जिसका स्वभाव है वह कामकामी है। ऐसा कामकामी मनुष्य उस परमशान्ति को कभी नही पा सकता।
परमशान्तिको प्राप्त हुआ वह महापुरुष कैसे रहता है? कैसे समय बिताता है? कैसे जीता है? आदि प्रश्न इस लेखमालाके वाचकोंके मन में आये होंगे। स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ताका बहुत ही सुंदर वर्णन भगवान् शंकराचार्यने अपने प्रकरण ग्रन्थ "विवेक चूड़ामणि" में किया हुआ है, जिसे पढ़कर आपके प्रश्नोंके उत्तर मिलेंगे!
क्कचिन्मूढो विद्वान्क्कचिदपि महाराजविभवः ।
क्कचिद्भ्रान्तः सौम्यः क्कचिदजगराचारलितः ।
क्कचित्पात्रीभूतः क्कचिदवमतः क्काप्यविदितश्र्चरत्येवं प्राज्ञः सततपरमापन्दसुखतः ।।
अर्थः निरंतर परमआनंद से सुखी ब्रम्हवेत्ता कहीं विद्वान होकर, कहीं मूढ़़ होकर, कहीं बड़े राजा का वैभव संपादन करनेवाला होकर, कहीं भ्रमिष्ट होकर, कहीं सभ्य गृहस्थ होकर, कहीं अजगर जैसे वृत्ति का होकर, कहीं सत्पात्र होकर अथवा कहीं अपमानित होकर, कहीं कोई पहचान न पाए इस तरह से संचार करता है।
निर्धंनोSपि सदा तुष्टोSप्यसहायो महाबलः।
नित्यतृप्तोSप्यभुञ्जनोS प्यसमः समदर्शनः ।।
अपि कुर्वन्नकुर्वाणश्र्चाभोक्ता फलभोग्यपि।
शरीर्यप्यशरीर्येष परिच्छिंन्नोSपि सर्वगः ।।
अर्थः ब्रह्मवेत्ता निर्धन होकर भी निरंतर संतुष्ट होता है, किसी की सहायता न होते हुए वह बड़ा सामर्थ्यवान होता है, विषयों को न भोगकर भी निरंतर तृप्त होता है, सबसे विलक्षण होकर भी सर्वत्र समदृष्टी रखनेवाला होता है, सबकुछ करते हुए भी कर्ता नही होता, फलों को भुगतते हुए भी भोक्ता नही होता, देहधारी होकर भी देहरहित होता है, और परिच्छिन्न होकर भी व्यापक होता है
प्रश्न यह है कि क्या ऐसी इच्छाशून्य स्थिति मनुष्य प्राप्त कर सकता है क्या? --इच्छाशून्य स्थिति का अर्थ यह नही की जबरदस्ती-मनके विरुद्ध- सब कर्म त्याग कर दे और एक जगह बैठ जाए। यह वो जीवनमुक्त की स्थिति है जो यथाकाल मनुष्य ज्ञानसे प्राप्त कर सकता है, और यही मोक्ष है। जो भी इच्छाएँ मन में तैयार होती है, उसका कारण अज्ञान है। इच्छा शून्य स्थिति अज्ञान नष्ट होते ही बन जाती है, और अज्ञान को ज्ञान ही नष्ट कर सकता है, कोई दूसरा मार्ग नही है।
अज्ञान मिटनेसे ज्ञान स्वयं प्रकट होता है, जो हमारे शरीर में अस्तित्व में है ही, पर अज्ञानके कारण ढक गया है। हमे कोई नया ज्ञान सीखना नही है। बस जन्म जन्मान्तर के पूर्व संस्कारोंसे तथा वर्तमान जन्म के गलत धारणाओंसे ज्ञानरूपी अग्निपर अज्ञान की राख जम गयी है, जो हमें दूर करना है। हम ज्ञान योग का अभ्यास शुरू करते ही अज्ञान दूर होनेकी प्रक्रिया शुरू होती है जो हमारे मन, बुद्धि और शरीर में निरंतर कार्य करती रहती है। यह प्रक्रिया पूर्ण हो कर मनुष्य स्थितप्रज्ञ बनता है। भगवत्प्राप्ति की इच्छा जितनी प्रबल उतने कम समय में मनुष्य ज्ञानी बनता है।
क्रमशः
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