प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार है
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जिस क्षण तुम कहते हो कि जिम्मेवार मैं हूं, तुम मालिक बनने शुरू हो गए, तुम्हारे भीतर रूपांतरण शुरू हुआ। अब न केवल सुख में, न केवल दुख में, हर हालत में, कोई भी मनोदशा हो, तुम ही अपने को कारण समझोगे। उपनिषदों में ऋषि कहते हैं कि कोई अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करता; पत्नी के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। कोई पुत्रों को प्रेम नहीं करता; पुत्रों के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। प्रेम हो, घृणा हो; सुख हो, दुख हो; क्रोध हो, करुणा हो; हर हालत में तुम अपने पर ही लौट आते हो।
यह पूरब की गहनतम खोज है। तुमसे ही तुम्हारा प्रारंभ है, और तुम पर ही तुम्हारा अंत है। जिस दिन तुम यह जान लोगे, पहचान लोगे...।
और कोई कठिनाई नहीं है, सारा जीवन इसका शास्त्र है। थोड़ा पढ़ना सीखो। थोड़े शब्दों के अर्थ सीखो। थोड़े जीवन के संकेत को पहचानो। और तुम जान लोगे कि तुम ही मालिक हो। फिर तुम्हारी मर्जी, तुम्हें क्रोधित होना हो क्रोधित हो जाना, लेकिन जिम्मेवार दूसरे को भूल कर मत ठहराना।
और तब तुम पाओगे तुम क्रोधित भी नहीं हो सकते। क्योंकि क्रोध तभी संभव है जब दूसरा जिम्मेवार हो। नहीं तो क्रोध किस पर करना? किस कारण करना? धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन का वैमनस्य गिरने लगा। तुम समझौता नहीं करते, न ही तुम किन्हीं शर्तों पर किसी तरह की शांति की व्यवस्था करते हो; तुम बेशर्त अपने मालिक हो जाते हो, और दूसरे पर से सारी जिम्मेवारी हटा लेते हो। तुम अपने संसार खुद हो जाते हो। तुम्हारे जीवन में केंद्र का जन्म हो जाता है। एक आधारभूत स्थिति तुम्हारे भीतर बनने लगती है। इसी आधारभूत स्थिति पर फिर तुम्हारे जीवन के सारे स्वर्ग का आरोहण, जीवन के सारे संगीत का जन्म संभव हो पाता है।
मत ठहराओ किसी और को दोषी। मत ठहराओ किसी और को उत्तरदायी। सब तरफ से उत्तरदायित्व खींच लो। अपने केंद्र स्वयं हो जाओ। तब तुम्हारे जीवन में क्रांति संभव है। इससे कम पर क्रांति न होगी। और तुमने और तरह के तो सब उपाय किए हैं। दूसरा गाली देता है; तुम अपने को समझाते हो कि झगड़ा करना उचित नहीं, असभ्य है, शिष्टाचार के विपरीत है। लेकिन ऊपर से चाहे तुम झगड़ा न करो, भीतर झगड़ा शुरू हो गया। कोई अपमान करता है; तुम सोचते हो कि अरे छोड़ो भी, कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है।
यह तो अहंकार का विचार हुआ--कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है। तुम हाथी हो; बाकी लोग कुत्ते हैं। यह कोई बड़ी समझदारी की बात न हुई। यह तो बड़ा अहंकार हुआ। और दोषी तो तुम ठहरा ही रहे हो। अपने को समझा रहे हो कि दूसरे कुत्ते हैं, तुम हाथी हो। ऐसा संतोष पैदा कर रहे हो।
ओशो🔆
ताओ उपनिषद
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