यहां जो हमने कमाया है.....
सब छिन जाएगा...
सब पड़ा रह जाएगा..‼️
मनुष्य का जीवन मृत्योन्मुख है। जन्म के बाद मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी सुनिश्चित नहीं। जैसे हुई सुबह, ऊगा सूरज, सांझ सुनिश्चित हो गई; ऐसे ही जन्म हुआ, मृत्यु निश्चित हो गई। जन्म का ही दूसरा पहलू है मृत्यु। जन्म और मृत्यु के बीच जो जागा नहीं, वह व्यर्थ ही जीया। मृत्यु देखकर भी आती जो जागा नहीं, वह कैसे और जागेगा? मृत्यु अदभुत उपाय है। इसलिए वाजिद कहते हैं: दुहाई राम की। प्रभु की बड़ी कृपा है कि उसने मृत्यु दी। तब भी ऐसे अभागे और मंदबुद्धि लोग हैं कि नहीं जागते। अगर मृत्यु न होती, तब तो कोई जागता ही नहीं! मृत्यु है, फिर भी लोग सोए हुए हैं। मौत आ रही है, पक्का भरोसा है, बचने का कोई उपाय नहीं है, भागने की कोई सुविधा नहीं है; हम मृत्यु के हाथ में उसी क्षण पड़ गए जिस दिन जन्म हुआ; निरपवाद रूप से प्रत्येक को मरना है। फिर भी जागते नहीं; फिर भी जीवन की आपाधापी में ऐसे व्यस्त हैं जैसे मौत कभी नहीं होगी। लोगों को देखो तो भरोसा नहीं आता कि मौत होती है। क्षुद्र—क्षुद्र बातों पर लड़े जा रहे हैं, मरे जा रहे हैं। छोटे—छोटे पद पर, छोटे—मोटे धन पर, छोटी प्रतिष्ठा पर, अहंकार की पताकाएं उड़ा रहे हैं!
गिर जाएंगे, इन्हीं झंडों के साथ धूल में गिर जाएंगे। पता है पास—पड़ोस में जो खड़े थे अभी, वे गिर गए हैं, अपनी भी घड़ी आती होगी। जब भी कोई अरथी निकलती है, याद करना, तुम्हारी अरथी निकलने का क्षण करीब आ रहा है। जब कोई चिता धू—धू कर जलती है, अपने को उस चिता पर कल्पना करना। देर नहीं है; वर्ष, दो वर्ष कि दस वर्ष, फर्क क्या पड़ता है?
मृत्यु को जो सोचने लगता, विचारने लगता, उसके जीवन में क्रांति घटित होती है। धर्म असंभव था अगर मृत्यु न होती। पशुओं के पास कोई धर्म नहीं है, क्योंकि उन्हें मृत्यु का बोध नहीं है। पशु सोच नहीं पाता कि मरेगा; उतना विचार नहीं, उतना विवेक नहीं। जो मनुष्य भी बिना मृत्यु को सोचे—विचारे जीते हैं, पशु जैसे जीते हैं, फिर उनमें और पशु में बहुत भेद नहीं। क्या भेद होगा? एक ही भेद है मनुष्य में और पशु में कि पशु मृत्यु की धारणा नहीं कर पाता, मनुष्य कर पाता है। जो मनुष्य इस धारणा को नहीं करता, इसको दबाता है, इससे आंख चुराता है, उसने मनुष्य होने से बचने की ठान रखी है। वह कभी मनुष्य न हो पाएगा। और जो मनुष्य ही न हो पाए, उसके परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
मनुष्य मनुष्य होता है मृत्यु को स्वीकार करके, देखकर, जानकर, पहचानकर, मृत्यु को जगह देकर अपने हृदय में। जैसे ही तुमने अपनी मृत्यु को पहचाना, वैसे ही तुम और होने लगोगे।
मृत्यु की पहचान से ही संन्यास का जन्म हुआ, ध्यान का जन्म हुआ। यदि मृत्यु है तो कुछ आयोजन करने होंगे। अगर मिट ही जाना है; और यहां जो हमने कमाया है, सब छिन जाएगा, सब पड़ा रह जाएगा, तो कुछ ऐसा भी कमाना चाहिए जो मृत्यु में साथ जाए। यहां के तो संगी—संबंधी सब दूर खड़े रह जाएंगे; पहुंचा देंगे मरघट तक, फिर लौट जाएंगे—उन्हें अभी और जीना है। अभी उनके बहुत काम अधूरे पड़े हैं। एक दिन उनके काम ऐसे ही अधूरे पड़े रह जाएंगे जैसे तुम्हारे पड़े रह गए। लेकिन अभी उन्हें बोध नहीं, अभी होश नहीं। लोग मरघट पर भी जाते हैं किसी की चिता जलाने तो वहां भी संसार की ही बातें करते हैं, वहां भी बैठकर बाजार की ही बातें करते हैं। वहां भी अफवाहें गांव की...उन्हीं अफवाहों में तल्लीन होते हैं। उधर किसी की लाश जल रही है, वे पीठ किए गपशप करते हैं।
वे गपशप तरकीबें हैं, वे उस मृत्यु के तथ्य को झुठलाने के उपाय हैं। वे नहीं देखना चाहते कि जो कल तक जिंदा था, आज जिंदा नहीं है। वे नहीं देखना चाहते—जो कल हम जैसा चलता था, हम जैसा ही लड़ता था, हम जैसा ही जीवन की हजार—हजार कामनाओं से भरा था, आज राख हुआ जा रहा है। वे घबड़ाते हैं, उनके हाथ—पैर कंपे जाते हैं। यह तथ्य वे स्वीकार नहीं कर सकते कि ऐसे ही एक दिन हम भी गिरेंगे और मिट्टी में खो जाएंगे।
अगर इस तथ्य को तुम स्वीकार कर लो—करना ही पड़े, अगर थोड़ा भी विवेक हो तो करना ही पड़े, थोड़ा भी बोध हो तो करना ही पड़े—इस तथ्य की स्वीकृति के साथ ही तुम नए होने लगोगे; क्योंकि फिर तुम्हें जीवन और ही ढंग से जीना होगा। ऐसे जीना होगा कि मृत्यु आए उसके पहले तुम्हारे पास कुछ हो जो मृत्यु छीन न सके—ध्यान हो, प्रार्थना हो, प्रभु की थोड़ी अनुभूति हो, समाधि का थोड़ा अनुभव हो, थोड़ी आत्मा की सुवास उठे! क्योंकि देह ही मरती है, आत्मा नहीं मरती। दीया ही टूटता है, ज्योति तो उड़ जाती है फिर नए दीयों की तलाश में। पिंजड़ा ही जलता है, पक्षी तो उड़ जाता है।
ओशो 🌹
कहै वाजिद पुकार
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