* ध्यान है तो सब है, ध्यान नहीं तो कुछ नहीं *
ध्यान सतत करना होगा, जब तक समाधि उपलब्ध न हो जाए। अगर एक दिन की भी गाफिलता की, एक दिन की भी भूल-चूक की, तो जो कमाया था वह खोने लगता है। ध्यान तो ऐसा ही है जैसे कि कोई साइकिल पर सवार आदमी पैडल मारता है। वह सोचे कि अब तो चल पड़ी है साइकिल, अब क्या पैडल मारना! पैडल मारना बंद कर दे तो ज्यादा देर साइकिल न चलेगी। चढ़ाव होगा तब तो फौरन ही गिर जाएगी। उतार होगा तो शायद थोड़ी दूर चली जाए, लेकिन कितनी दूर जाएगी? ज्यादा दूर नहीं जा सकती। सतत पैडल मारने होंगे, जब तक कि मंजिल ही न आ जाए। ध्यान रोज करना होगा।
जो-जो कमाया है ध्यान से, उसकी रक्षा करनी होगी। वह जो-जो हाथ में आ जाए उसको तो बचाना। जितना थोड़ा सा चित्त साफ हो जाए, ऐसा मत सोचना कि अब क्या करना है सफाई। वह फिर गंदा हो जाएगा। जब तक कि परिपूर्ण अवस्था न आ जाए समाधि की तब तक श्रम जारी रखना होगा।
हां, समाधि फलित हो जाए, फिर कोई श्रम का सवाल नहीं। समाधि उपलब्ध हो जाए, फिर तो तुम उस जगह पहुंच गए जहा कोई चीज तुम्हें कलुषित नहीं कर सकती। मंजिल पर पहुंच गए। फिर तो साइकिल को चलाना ही नहीं, उतर ही जाना है। फिर तो जो पैडल मारे वह नासमझ। क्योंकि वह फिर मंजिल के इधर-उधर हो जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है, जहां उतर जाना है, जहा रुक जाना है, जहां यात्रा ठहर जाएगी। लेकिन उस घड़ी के पहले तो श्रम जारी रखना। और जो भी छोटी-मोटी विजय मिल जाए, उसको सम्हालना है। संपदा को बचाना है।
ओशो, एस धम्मो सनंतनो, प्रवचन--13
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