बाहर का व्यर्थ होगा तभी तो तुम भीतर देखोगे। जब तक बाहर तुम्हें सार्थक मालूम हो रहा है तब तक भीतर तुम जाओगे क्यों? कंकड़—पत्थरों में हीरे मालूम हो रहे हैं तो तुम कंकड़—पत्थर बीनोगे। अगर बाहर सब कंकड़ पत्थर है, फिर क्या करोगे? फिर भीतर जाना ही होगा! और जब जाना ही होता है तभी लोग जाते हैं। जब सब तरफ से हार जाते हैं, तभी लोग जाते हैं। पराजय पूरी होनी चाहिए। उदासी समग्र होनी चाहिए। इसी उदासी से आनंद का जन्म होता है।
यहां सब व्यर्थ हो जाता है।
तुमने धन कमाया, वह भी एक दिन व्यर्थ हो जाएगा। जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा। तुमने यहां प्रेम किया, वह भी उखड़ जाएगा, वह भी टूट जाएगा। जिनसे तुमने प्रेम किया वे भी मरणधर्मा हैं। तुम भी मरणधर्मा हो। यहां के नाते—नदी—नाव—संयोग हैं। क्षणभंगुर के हैं। थोड़ी देर टिकते हैं, पानी के बबूले हैं—पानी केरा बुदबदा। कितनी देर टिकेगा? जब तक है तब तक हो सकता है सूरज की रोशनी में चमके, इंद्रधनुष दिखायी पडे पानी के बुलबुले में, लेकिन कितनी देर? टूटने को ही है। टूटना सुनिश्चित है। उसके होने में ही टूटना छिपा है। यहां बड़े सपने तुमने देखे हैं—प्रेम के, पद के, प्रतिष्ठा के—वे सब उखड़ जाएंगे।
अथातो भक्ति जिज्ञासा-2/28
ओशो
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