जहां-जहां जीवन है, वहां-वहां कोई नियति नहीं है। नियति से मुक्त हो जाना, नियति की दृशिट से मुक्त हो जाना--मोक्ष है, निर्वाण है। यह तो पूछो कि मैं कौन हूं। जरूर अपने से पूछो। मगर इस उपद्रव में मत पड़ना कि मैं किसलिए हूं। उसका तुम कभी कोई उत्तर न पाओगे। इसका उत्तर तो जरूर पाओगे कि मैं कौन हूं। वही उत्तर पाओगे जो सदा पाया गया है। मगर वह उत्तर तुम्हारे भीतर से आना चाहिए। पाओगे कि चैतन्य हो, द्रशटा हो, साक्षी हो, सच्चिदानंद हो--सत हो, चित हो, आनंद हो। और यह खजाना तुम्हारे भीतर भरा पड़ा है। मत फैलाओ अपनी झोली कहीं और।
रहिमन धागा प्रेम का -10
ओशो
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