10/21/2020

alone

आदमी अकेला है। और इस अकेलेपन के कारण दो यात्राओं पर आदमी जा सकता है। एक यात्रा है समाज की और एक यात्रा है संन्यास की। दोनों पैदा होते हैं अकेलेपन से, तनहाई से। अकेला आदमी या तो अपने को भुलाने के लिए दूसरों का साथ खोजे, भीड़ खोजे, संबंध खोजे, संग खोजे नाता—रिश्ता खोजे—पत्नी में, पति में, बच्चों में, मित्रों में, परिवार में अपने को डुबा ले, भूल जाए कि मैं अकेला हूं तो समाज की यात्रा शुरू हुई।

लेकिन ऐसे कोई कभी भूल नहीं पाता। बार—बार तनहाई उभर—उभरकर निकलती रहती है। जगह—जगह से छेद हो जाते हैं और जगह—जगह से दिखायी पड़ता है वह सत्य, जिसे हमने झुठलाने की कोशिश की है। लाख पत्नी हो, पति हो, मित्र हों, प्रियजन हों, फिर भी तुम होते तो अकेले ही हो। 

अकेलेपन को इतने जल्दी मिटा देने का कोई उपाय नहीं। इतने सस्ते में अकेलापन जाता होता तो आदमी सुखी हो गया होता। नहीं जाता है। अक्सर तो ऐसा होता है कि भीड़ तुम्हें और भी अकेला कर जाती है। भीड़ और अकेलेपन को उभार—उभारकर बताने लगती है। जितना तुम भुलाने की चेष्टा करते हो, उतनी और याद आती है।

तो एक तो समाज, संग—साथ, इनके द्वारा आदमी अपने को भुलाने की कोशिश करता है। और दूसरा, संन्यास। संन्यास का अर्थ है, अकेलेपन को किसी के संग—साथ में भुलाना नहीं है, बल्कि अकेलेपन को जानना है कि क्या है। अकेलेपन में उतरना है, सीढ़िया लगानी हैं। पहचानना है अपने को कि मैं कौन  जो अकेला है। और पहचानना है कि यह क्या है जो अकेलापन है।

जो आदमी इस अकेलेपन को पहचानने चलता है, एक दिन पाता है, यह अकेलापन कैवल्य है। यह अकेला होना हमारा स्वभाव है। और इस अकेले होने में कोई पीड़ा नहीं है, कोई दुख नहीं है। यह अकेला होना आनंद है। यह अकेला होना हमारी स्वतंत्रता है, मुक्ति है, मोक्ष है।

तो समाज और संन्यास, दोनों पैदा होते हैं एक ही तथ्य से। और वह तथ्य है—तनहाई, अकेलापन, एकाकीपन। अगर भुलाने की कोशिश की तो भीड़ में खो जाओगे। और अपने से दूर और दूर निकलते जाओगे। और जितने दूर निकलोगे उतनी पीड़ा बढ़ जाएगी, क्योंकि अपने से दूर जाना ही पीड़ा है। अगर संन्यास में उतरे, अपने स्वात को ध्यान बनाया; स्वात स्वात है, अकेलापन नहीं; एकांत का सौदर्य है, एकांत में कोई पीड़ा नहीं, ऐसी तुमने व्याख्या बदली और तुम धीरे—धीरे अपने रस में डूबे, अपने होने में डूबे, तुमने अपने में मजा लिया...।

दूसरे में मजा लेना समाज। मिलता कभी नहीं, लगता है मिलेगा, मिलेगा—
कोई आता है आ रहा है आएगा शायद खूबसूरत ये हमें भ्रम है और तनहाई
कोई कभी आता नहीं। द्वार खोले तुम बैठे रहते हो, कोई कभी आता नहीं। आएगा शायद, इस आशा में आखें थक जाती हैं, फूटी हो जाती हैं। इस आशा में जीवन चुक जाता है, मौत आ जाती है और कोई नहीं आता। और इस आशा में वह परम अवसर चूक जाता है जिसमें तुम अपने भीतर जा सकते थे।

खयाल करो, अगर तुम्हें अपने साथ आनंद नहीं मिल रहा है तो किसके साथ आनंद मिल सकेगा! अगर अपने साथ भी तुम मौज में नहीं हो सकते तो किसके साथ मौज में हो सकोगे! और दूसरा जो तुमसे संबंध बनाने आएगा, वह भी इसीलिए संबंध बनाने आया है, कि वह भी अकेलेपन से घबड़ा रहा है। वह भी अकेले में भानदित नहीं है, तुम भी अकेले में आनंदित नहीं हो। दो दुखी आदमी अपने—अपने से घबड़ाकर एक—दूसरे में डूबने की कोशिश कर रहे हैं, दुख दुगुना हो जाएगा। गगना नहीं अनेक गुना हो जाएगा—गुणनफल हो जाएगा। दो दुखी आदमी जुड़कर कैसे सुख पैदा कर सकते हैं! दो दुख मिलकर सुख बनते हैं, ऐसा तुमने कहा पढ़ा? किस गणित में पढ़ा? तुमने गणित ही गलत पढ़ लिया है। मगर यह हमारे जीवन, गणित है, ऐसे ही हम सोचते हैं।

तुम अकेले हो तो सोचते हो, विवाह कर लो। फिर भी दुख। तो सोचते हो, एक बेटा पैदा हो जाए। फिर भी दुख। तो सोचते हो, एक बहू बेटे को मिल जाए। फर भी दुख। सोचते हो, अब बेटे को बेटा पैदा हो जाए। ऐसे चलता है। दुख घटता नहीं, बढ़ता है। क्योंकि ये जितने लोग बढ़ते जा रहे हैं, ये सब अकेले में दुखी हैं। संन्यास का अर्थ होता है, अगर आनंद घट सकता है तो अपने में घट सकता है, और कहीं भी नहीं घटेगा। ये आज के सूत्र इस संबंध में हैं।

एस धम्मो सनंतनो👣ओशो

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