10/02/2020

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अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। 24।।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। 25।।

बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अर्थात जिससे उत्तम और कुछ भी नहीं है, ऐसे अविनाशी परम भाव को अर्थात अजन्मा अविनाशी हुआ भी अपनी माया से प्रकट होता हूं, ऐसे प्रभाव को तत्व से न जानते हुए मन-इंद्रियों से परे मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्म कर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।

तथा अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूं। इसलिए ये अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को तत्व से नहीं जानते हैं।

दो बातें इस सूत्र में कृष्ण कह रहे हैं। एक, साकार शरीर में मैं खड़ा हूं, आकार लिया है। जो नहीं जानते हैं, वे सोचते हैं, मेरा आकार ही मैं हूं। वे मेरे भीतर छिपे निराकार को नहीं देख पाते हैं। रूप लिया है मैंने। जिनके पास देखने की आंखें नहीं हैं, सोचने के लिए मेधा नहीं है, वे मेरे रूप को ही देख पाते हैं। उस अरूप को, जो भीतर छिपा है, उससे अपरिचित रह जाते हैं। मेरा वह सच्चिदानंद रूप है जो, मेरा वह जो सच्चिदानंद स्वभाव है, वह उनकी आंखों से ओझल रह जाता है।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

पहली बात, परमात्मा जब भी प्रकट होगा, तब रूप में प्रकट होगा, आकार में प्रकट होगा। प्रकट होने का अर्थ है, रूपायित होना, टु बी इन दि फार्म। प्रकट होने का अर्थ ही होता है, रूप लेना। प्रकट होने का अर्थ ही होता है, आकार लेना। प्रकट होने का अर्थ होता है, सीमा में खड़े होना। प्रकट होने का अर्थ है, पृथ्वी पर, शरीर में, देह में अभिव्यक्त होना। लेकिन हमें बड़ी कठिनाई होती है।

कृष्ण कहते हैं, जो नासमझ हैं, वे मेरी देह को ही समझ लेते हैं कि यह मैं हूं।

इन नासमझों में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे नासमझ, जो कृष्ण को प्रेम करने लगेंगे, लेकिन वे कृष्ण की देह को ही प्रेम करते चले जाएंगे। वे कृष्ण को, वह जो अरूपी भीतर छिपा है, उसको नहीं देख पाएंगे। और एक वे नासमझ, जो दुश्मन हो जाएंगे। वे कहते रहेंगे कि यह आदमी तो शरीरधारी है, यह भगवान कैसे हो सकता है? यह आदमी उठता है, बैठता है, सोता है, भूख लगती है, खाना खाता है। यह भगवान कैसे हो सकता है?

उन दोनों की बुद्धि में बहुत भेद नहीं है। जो कृष्ण को प्रेम करेंगे, वे इस शरीर को ही भगवान मान लेंगे। फिर वे कृष्ण की मूर्ति बना लेंगे, फिर वे उस कृष्ण की मूर्ति को सुबह दातुन कराएंगे, पानी पिलाएंगे, स्नान करवाएंगे, फिर वे उस कृष्ण की मूर्ति को शयन करवाएंगे; दोपहर को द्वार बंद करके बिस्तर पर लिटाएंगे; फिर उस मूर्ति को कपड़े पहनाएंगे।

फिर यह सब चलेगा। इस बात को भूल जाएंगे कि जिस कृष्ण का हमने आविर्भाव देखा था, वह यह मूर्ति नहीं है। वह आविर्भाव तो अमूर्त का था; इस मूर्ति से हुआ था, इस रूप में हुआ था। इस मूर्ति का उपयोग किया जा सकता है। इस मूर्ति के प्रति श्रद्धा भी प्रकट की जा सकती है। लेकिन इसी मूर्ति के आस-पास जो घूमने लगे, और अमूर्त को भूल जाए, वह नासमझ है।

एक तो नासमझी यह है, जो प्रेमी कर लेता है। दूसरी नासमझी यह है कि लोग पूछेंगे कि भगवान कैसे हैं! धूप पड़ती है, तो पसीना आता है; दौड़ें, तो सांस चढ़ जाती है; थक जाते हैं, तो इन्हें भी नींद आती है। हम आदमियों जैसे ही हैं। इसलिए हम कैसे स्वीकार करें कि ये भगवान हैं? वह एक दूसरा वर्ग है जो कहेगा, हम स्वीकार नहीं कर सकते। उसकी भी नासमझी वही है, जो उस भक्त की है, जो आकार में देख रहा है। वह भी आकार में देख रहा है।

कृष्ण कहते हैं, निराकार को जो देख पाए, वही बुद्धिमान है। असल में बुद्धि की परीक्षा ही यही है कि वह निराकार को देख पाए। आकार को तो निर्बुद्धि भी देख पाता है। आकार को देखने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। आकार तो सभी को दिखाई पड़ता है। वह जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह जो पीछे छिपा खड़ा है, उसे जो देख पाए, उसे जो पहचान पाए, वही बुद्धिमान है। लेकिन कृष्ण में ही कोई निराकार को देख लेगा, यह संभव नहीं है, जब तक वह सब जगह निराकार को देखना शुरू न कर दे।

जब आप एक वृक्ष को देखते हैं, तो आपको आकार ही दिखाई पड़ता है। आपको वह जीवन ऊर्जा, जो वृक्ष के भीतर बहती है और आकार लेती है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ती। जब एक फूल खिलता है, तो आकार ही दिखाई पड़ता है। उस फूल के भीतर जो ऊर्जा खिलती है और पंखुड़ियों में फैलती है, और जिस शक्ति के कारण पंखुड़ियां बंद थीं और खुल जाती हैं, उस शक्ति को आप नहीं देख पाते। जब एक बीज टूटता है, तो आप बीज को देखते हैं; लेकिन जो उसके भीतर भरा था और टूटना चाहता था, और तोड़ दिया बीज को और बाहर आया, वह आपको नहीं दिखाई पड़ता।

हम देखते ही आकार को हैं सब तरफ। जब हम सब तरफ आकार को देखते हैं, तो यह संभव नहीं है कि विशेष रूप से कृष्ण या क्राइस्ट या मोहम्मद के संबंध में हम आकार को न देखें और निराकार को देख लें। आकार को देखने की हमारी जड़बद्ध आदत है। हम जो चौबीस घंटे देखते हैं, वही हम कृष्ण में भी देख पाएंगे। हम दूसरी बात न देख पाएंगे।

ओशो – गीता-दर्शnभाग 3, 
अध्याय—7
OSHO

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