8/29/2020

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तुम्हारी चेतना ही स्वर्ग है, स्वर्ग का द्वार है। तुम्हारी चेतना की परम शुद्धि ही परमात्मा है। इसलिए किस परमात्मा को तृप्त करने की बात कर रहे हो सुदास! तुम तृप्त हो जाओ, तो परमात्मा तृप्त है।

तुम अतृप्त हो--अड़चन है। तुम्हारी अतृप्ति का सवाल है। तुम रुग्ण हो। सारा अस्तित्व तो स्वस्थ है। तुम ताल के बाहर पड़ गए हो। तुम बेताल हो गए हो। तुमने स्वर खो दिया है। तुम बेसुरे हो गए हो। अन्यथा सारा अस्तित्व स्वर में बद्ध है। सारा अस्तित्व संगीत में लीन है। तुम भी स्वरबद्ध हो जाओ। इस स्वरबद्धता को मैं प्रार्थना कहता हूं, पूजा कहता हूं, ध्यान कहता हूं।

कैसे कोई स्वरबद्ध होता है सुदास? अतीत में रहोगे--स्वर छिन्न-भिन्न रहेंगे। भविष्य में रहोगे--स्वर छिन्न-भिन्न रहेंगे। वर्तमान में जीओ--स्वर सध जाएंगे।

बस यही एक क्षण वर्तमान का सब कुछ हो। एक-एक क्षण जीओ। और परिपूर्णता से जीओ, समग्रता से जीओ। ऐसी डुबकी मारो कि पूरे-पूरे डूब जाओ। और प्रतिपल तुम पाओगे: मेहमान करीब आ रहा है--और करीब आ रहा है--और करीब आ रहा है। और एक दिन वह अपूर्व घटना घटती है, जिस दिन अतिथि में और आतिथेय में कोई भेद नहीं रह जाता है। मेहमान मेजबान की तरह आता है। अचानक एक दिन तुम पाते हो कि तुम ही हो वह। तत्वमसि श्वेतकेतु!
मृत्युरमा अमृत गमय -प्र-7
ओशो

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