आत्म - समर्पण ही भीतरी मौन है । और इसका तात्पर्य है , अहंकार - शून्य भाव से जीवन यापन करना । एकान्त , व्यक्ति के मन में है । कोई भरी दुनिया में रहे , तो भी मन की पूर्ण शान्ति को बनाये रख सकता है , ऐसा व्यक्ति सदैव एकान्त में है । और कोई अन्य जंगल में रहे , लेकिन अपने मन को वश में न कर पाये , तो ऐसे व्यक्ति को एकांतवासी नहीं कहा जा सकता । एकान्त , मन की प्रवृत्ति है । जीवन के राग - द्वेष से जुड़ा हुआ व्यक्ति , एकान्त नहीं पा सकता । फिर चाहे वह कहीं भी रहे । विरक्त व्यक्ति , सदैव एकान्त में है । वह अवस्था , जो वाणी और विचार से पार हो , मौन है ।
भगवान श्री रमण महर्षि
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