महावीर और बुद्ध ईश्वर को स्वीकार नहीं करते। इसलिए नहीं कि नहीं जानते, मगर उनके लिए ईश्वर ध्यान के मार्ग से उपलब्ध हुआ है। ध्यान के मार्ग पर ईश्वर का नाम आत्मा है, स्वरूप है। और जिसने भक्ति से जाना है—मीरा ने या चैतन्य ने, जिन्होंने प्रेम के मार्ग से जाना है—उनके मार्ग पर अनुभूति तो वही है निर—अहंकारिता की, लेकिन अनुभूति को अभिव्यक्ति देने का शब्द अलग है। वे परमात्मा की बात करेंगे।
इन शब्दों से बड़ा विवाद पैदा हुआ है। मैं अपने संन्यासियों को चाहता हूं इस विवाद में मत पड़ना। सब विवाद अधार्मिक हैं। विवाद में शक्ति मत गंवाना। तुम्हें जो रुचिकर लगे—अगर ध्यान रुचिकर लगे ध्यान, अगर भक्ति रुचिकर लगे भक्ति। मुझे दोनों अंगीकार हैं। और कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिन्हें दोनों एक साथ रुचिकर लगेंगे; वे भी घबड़ाएं न।
बहुत से प्रश्न मेरे पास आते हैं कि हमें प्रार्थना भी अच्छी लगती है, ध्यान भी अच्छा लगता है! क्यां चुने? दोनों अच्छे लगते हों तो फिर तो कहना ही क्या! सोने में सुगंध। फिर तो तुम्हारे ऊपर ऐसा रस बरसेगा जैसा अकेले ध्यानी पर भी नहीं बरसता और अकेले भक्त पर भी नहीं बरसता। तुम्हारे भीतर तो दोनों फूल एक साथ खिलेंगे। तुम्हारे भीतर तो दोनों दीए एक साथ जलेंगे। तुम्हारी अनुभूति तो परम अनुभूति होगी।
मेरी चेष्टा यही है कि प्रेम और ध्यान संयुक्त हो जाएं और धीरे—धीरे अधिकतम लोग दोनों पंखों को फैलाएं और आकाश में उड़ें। जब पंख को फैलाकर लोग पहुंच गए सूरज तक, तो जिसके पास दोनों पंख होंगे उसका तो कहना ही क्या!
अमी झरत बिगसत कंवल, प्रवचन-२, ओशो
0 comments:
Post a Comment